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________________ हैं वे वंशविहीन डोम के समान अपना सिर पीटते हैं, धुनते हैं। भावार्थ-केवल अक्षरों, शब्दों की रचना या संकलना से कोई शास्त्र नहीं हो जाता, किन्तु उसमें जो भावार्थ है वह महत्त्वपूर्ण है। इसी प्रकार कोई शास्त्र-पाठी तरह-तरह के शास्त्रों को रटकर सभा में व्याख्या करने लगे और ऐसा गर्व करे कि मैं "बहुत बड़ा पण्डित हूँ"-तो यह अंहकार मात्र है। क्योंकि जब तक किसी शास्त्र का रहस्य समझ में नहीं आता, तब तक ऊपर-ऊपर से समझा हुआ समझना चाहिए। मुनिश्री योगीन्दुदेव कहते हैं सत्थ पढंतह तेवि जड अप्पा जे ण मुणंति। तिह कारण ते जीव फुडु णहु णिव्वाण लहंति ॥-योगसार, दो. 52 अर्थात्-शास्त्रों को पढ़ने पर भी जिनको निज शुद्धात्मा का भान, ज्ञान या अनुभव नहीं होता, वे उस अज्ञानता के कारण मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकते। आचार्य पूज्यपाद कहते हैं कि यही उचित है कि आत्मज्ञान के सिवाय अन्य कार्य बुद्धि में चिरकाल तक धारण न करे। प्रयोजनवश कोई दूसरा काम करना पड़े, तो वचन से व काय से करले, किन्तु मन को उसमें आसक्त न करे। (समाधिशतक, श्लोक 50) इससे स्पष्ट है कि जब तक शास्त्र का रहस्य समझ में नहीं आता, तब तक मन में पछतावा बना रहता है। जिस तरह डोम ढोल पीटता रहता है और माथा धुनता है, वैसे ही अल्पज्ञानी के पूर्ण भाव स्पष्ट न होने तक चित्त में मनस्ताप बना ही रहता है। णाणतिडिक्की सिक्खि वढ किं पढियइं बहुएण। जा संधुक्की णिड्डहइ पुण्णु वि पाउ' खणेण ॥88॥ शब्दार्थ-णाणतिडिक्की-ज्ञान-चिनगारी; सिक्खि-सीखकर; वढ–मूर्ख किं पढियइं-पढ़ने से क्या?; बहुएण-बहुतायत से; जा-जिस; संधुक्कीप्रज्वलित (होने से); णिड्डहइ-जल जाते हैं, निर्दहन हो जाते हैं। पुण्णु वि पाउ-पुण्य-पाप भी; खणेण-क्षण भर में। अर्थ-हे मूर्ख! बहुत पढ़ने से क्या? आत्मज्ञान (ज्ञान-स्फुलिंग) की शिक्षा प्राप्त कर, जिसके प्रज्वलित (जागृत) होने पर क्षण भर में पुण्य-पाप भस्म हो जाते हैं। भावार्थ-आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि मिथ्याज्ञानी घोर तप करके जिन 1. अ, द, स णाणतिडिक्की; क, व तिडक्की; 2. अ, क, द, स सिक्खि; व सिक्ख; 3. अ, क सिंधुक्की; द सुंधुक्की; ब, स संधुक्की; 4. अ, क, द, स पाउ; व पाव। 112 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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