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________________ हउं सगुणी पिउ णिग्गुणउ णिल्लक्खणु णीसंगु। एक्कहिं अंगि वसंतयहं मिलिउ ण अंगहिं अंगु ॥-पाहुडदोहा, 101 यहाँ पर मैं (आत्मा) रागादि सहित (सगुणी) हूँ, किन्तु प्रिय (परमात्मा) निर्गुण (निरंजन), निर्लक्षण एवं निःसंग है। श्लेष में सामान्य अर्थ है-जो गुणसहित है, उसका प्रिय निर्गुण निर्लक्षण संग रहित कैसे? श्लेष में मैं सांसारिक गुणों से सहित व प्रिय उन से रहित है। फिर, एक ही अंग में दोनों के वसने पर भी परस्पर मिलन नहीं होता, यह महान् आश्चर्य है। वास्तव में आत्मा-परमात्मा की प्रीति हुए बिना मोह की गाँठ कौन खोल सकता है? पं. दीपचन्द कासलीवाल ने ‘परमात्मपुराण' में परमात्मा को राजा कहा है। आत्मपरिणति उसकी परम रानी है। उनके ही शब्दों में- .. .. ___“परमातम राजा को प्यारी, सुख देनी परम राणी अतीन्द्रिय विलासकरणी अपनी जानि आप राजा तू यासों दुराव न करे। अपनो अंग दे समय-समय मिलाय लेहै अपने अंग में। राजा तो वासों मिलता वाके रंगि होय है। वा राजा सों मिलता राजा के रंगि होयं है। एक रस-रूप अनूप भोग भोगवे है। परमातम राजा अंर परणतितिया का विलास सुख अपार, इनकी महिमा अपार है।” (अध्यात्म पंचसंग्रह, पृ. 45) इससे स्पष्ट है कि परमात्मा को निर्गुण, निराकार तथा आत्मा की परिणति को जैन कवि प्रेयसी के रूप में चित्रित करते हैं। अतः, 'सगुण' का अर्थ आत्म-परिणति से है। एक दूसरा अर्थ भी ‘सगुण' का है जो ‘सकल' का वाचक है। 'सकल' का अर्थ है-कल (देह) सहित, शरीरवान या रागादि सहित आत्मा। 'निर्गुण' को 'निष्कल' तथा 'निरंजन' भी कहा गया है। जो रागादि कर्ममल रूप अंजन से रहित है, वह निरंजन है। उसे निराकार सिद्ध परमात्मा भी कहते हैं। इस प्रकार जैनों का 'ब्रह्म' निर्गुण, निराकार है। जो सम्पूर्ण रागादि विकल्पों से रहित, पूर्ण वीतरागी तथा सर्वज्ञ हैं वे अर्हन्त परमात्मा हैं। परमात्मा रूपी प्रियतम का ध्यान करने से मन उसमें तल्लीन हो जाता है, अभ्यास से विलीन हो जाता है। शुद्धात्म स्वभाव में मन के स्थिर हो जाने पर क्रमशः मोह का नाश हो जाता है, और मोह के अभाव में मन मर जाता है तथा शुद्ध परिणति उत्पन्न हो जाती है, जिसमें ज्ञान विलास करता है और परमानन्द (अतीन्द्रिय आनन्द) का भोग करता है-यही परमात्म-दशा है। (परमात्मप्रकाश, 2,163) ___'अध्यात्म पंचसंग्रह' के अन्तर्गत 'परमात्मपुराण' में ज्ञान को स्पष्ट करते हुए पं. दीपचन्द कासलीवाल ने ज्ञान और ज्ञानपरिणति में भेद बताया है। ज्ञान अनन्तशक्ति स्वसंवेदन रूप को धारण करने वाला लोक-अलोक का जाननहारा है। वह अनन्त गुणों के अनन्त सत् को जानता है। ज्ञान रूप ज्ञान तथा ज्ञान परिणति रूपी नारी ज्ञान से मिलन कर, अंग से अंग मिलकर, ज्ञान का रसास्वाद लेकर 10 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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