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________________ दृष्टि से पृथक्त्व का विवेचन एवं परमात्मपद की प्राप्ति के लिए दाम्पत्य भाव की अभिव्यंजना। इन सबके मूल में दो ही बातें मुख्य हैं-अपने आत्मस्वभाव को पहचान कर स्वभाव का आश्रय लेना और आत्मानुभूति पूर्वक स्व-परिणति को परमात्मतत्त्व में विलीन करना। यही वर्णन करते हुए मुनि रामसिंह कहते हैं जिम लोणु विलिज्जइ पाणियहं तिम जइ चित्तु विलिज्ज। समरसि हूवइ जीवडा काइं समाहि करिज्ज ॥ पाहुडदोहा, 177 अर्थात्-जैसे नमक पानी में घुल जाता है, वैसे चित्त आत्मा में विलीन हो जाए, तो वही समरसता है। समाधि में और क्या किया जाता है? इसी प्रकार का भाव सिद्धकवि काण्हपा की रचना में भी लक्षित होता है। उनके ही शब्दों में जिमि लोण विलिज्जइ पाणिएहि तिम घरिणी लइ चित्त। समरस जाइ तक्खणे जइ पुणु ते समणंति ॥-काण्हपा अर्थात्-जैसे पानी में नमक विलीन हो जाता है, वैसे ज्ञानरूपिणी गृहिणी को लेकर चित्त को समरस में ले जाएँ, तो उसी क्षण से समरस में अवस्थित हो जाता यही नहीं, ‘पाहुडदोहा' में यहाँ तक कहा गया है मणु मिलियउ परमेसरहं परमेसरु वि मणस्स। विण्णि वि समरसि हुइ रहिय पुज्ज चडाउं कस्स ॥पाहुडदोहा, 50 ____ अर्थात्-चित्त परमात्मा में विलीन हो गया और परमात्मा भी निजानुभूति परिणति के साथ एकमेक हो गया। दोनों ही समरस, एक रस हो गए, तो फिर पूजा किस की करूँ? . इसमें कोई सन्देह नहीं है कि अपभ्रंश-साहित्य में जोइन्दु के ‘परमात्मप्रकाश' और 'योगसार' एवं मुनि रामसिंह का ‘पाहुडदोहा' और महयंदिण का ‘पाहुडदोहा' प्रमुख रहस्यवादी काव्य रचनाएँ हैं। 'आणंदा' जैसे अन्य अनेक मुक्तक काव्य भी इसी परम्परा की देन हैं। अपभ्रंश में गीत भी लिखे गए थे, लेकिन उनका अब तक प्रकाशन नहीं हो सका है। फुटकर रूप से शास्त्र-भण्डारों में गुटकों में लिपिबद्ध कई तरह के गीत उपलब्ध होते हैं। उनमें से कतिपय सरस रहस्यानुभूति की अभिव्यंजना से समन्वित हैं। .मुनि रामसिंह ने 'समरसी' भाव को स्पष्ट करने के लिए अपनी आत्मा को प्रेयसी के रूप में तथा परमात्मा को 'निष्कल' पुरुष के रूप में रूपक शैली में श्लिष्ट रूप में अभिव्यंजित किया है। उनके ही शब्दों में .प्रस्तावना:9
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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