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________________ सहज आत्मिक सुख का लाभ नहीं होता, इसलिए सच्चे सुख को प्राप्त न कर शरीर की पीड़ा से घबराये हुए बाधा मिट जाने की आशा में रम्य विषयों में रमण करते हैं, किन्तु तृष्णा का शमन नहीं कर पाते। (प्रवचनसार, गा. 75 ) संसारी जीव जैसे-जैसे भोगों को भोगता है, वैसे ही वैसे भोगों में तृष्णा बढ़ती जाती है; जैसे अग्नि में ईंधन डालने से आग बढ़ती है, वैसे भोग तृष्णा को बढ़ाते हैं। (भगवती आराधना, गा. 1263) जो सद्गुरु के प्रसाद से शुद्ध चिद्रूप के अतीन्द्रिय, अविनाशी, अखण्ड आनन्द को जान लेता है, अनुभव कर लेता है, वह देवेन्द्र, नागेन्द्र और इन्द्रों के सुख जीर्ण तिनके के समान समझने लगता है। अतः विषयों में सुख है - यह भ्रम है। सद्गुरु का सच्चा उपदेश मिलने पर भ्रम दूर होता है और निर्णय होने पर निश्चल श्रद्धान हो जाता है कि सुख और शान्ति अपने स्वभाव में है; बाहर में कहीं नहीं है । इसलिए तत्त्व-निर्णय करने में उपयोग लगाना चाहिए। यदि तेरा चित्त तत्त्व-निर्णय करने में न लगे, तो समझना चाहिए कि इसमें कर्म का कोई दोष नहीं है, जीव के प्रमाद का दोष है। संसार के सभी तरह के कामों में, यहाँ तक कि समाचार-पत्र, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि पढ़ने में तथा मनोरंजन के क्रियाकलापों में मन अच्छी तरह से लगता है, तो फिर शास्त्र- स्वाध्याय, तत्त्व का स्वरूप समझने में क्यों आलस्य करता है? यथार्थ में आत्म-कल्याण स्थिर आत्मज्ञान से ही हो सकता है। उसका पुरुषार्थ निरन्तर करना चाहिए । उप्पज्जइ जेण' विबोहु णवि' बहिरण्णउ तेण णाणेण । तइलोय पायडेण वि असुंदरो' जत्थ परिणामो ॥83॥ शब्दार्थ–उप्पज्जइ–उत्पन्न होता है; जेण - जिससे; विबोहु - आत्मज्ञान; णवि-नहीं; बहिरण्णउ-बहिर्मुख ( होने से ); तेण णाणेण - उस ज्ञान से; तइलोय - तीन लोक; पायडेण प्रकट करने से वि-भी; असुंदरो-अशुभ जत्थ- जहाँ; परिणामों- परिणाम ( है ) । अर्थ - जिस से विशेष बोध ( आत्मज्ञान) उत्पन्न न हो; जिसमें तीन लोकों को प्रकट करने की शक्ति (न) हो, उस बहिर्मुखी ज्ञान से जीव बहिर्ज्ञानी (बहिरात्मा) रहता है, जिसका परिणाम अशुभ है। भावार्थ - सच्चे सुख का मूल भेदविज्ञान कहा गया है। जैसे रजशोधक धूल शोध कर सोना निकाल देता है, कीचड़ में निर्मली डालने से वह पानी को स्वच्छ कर मैल हटा देता है, दही मथने वाला दही मथ कर मक्खन को निकाल लेता है, 1. अ जेणु; क, द, ब, स जेण; 2. अ, ब, स णउ; क, द ण वि; 3. अ असुंदर; क, द, ब, स असुंदरी। पाहुडदोहा : 107
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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