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हंस दूध पी लेता है और पानी छोड़ देता है, वैसे ही ज्ञानी पुरुष भेद-विज्ञान के बल से आत्म-सम्पदा ग्रहण कर लेते हैं और राग-द्वेष आदि पर पदार्थों का त्याग कर देते हैं। (समयसार नाटक, संवर द्वार, 10) ज्ञानी जीव भेदविज्ञान की करौंत से आत्म-परिणति और कर्म-परिणति को अलग-अलग कर उनको भिन्न-भिन्न जानता है और आत्मा के अनुभव का अभ्यास करता है। वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को ग्रहण कर मोक्ष के सम्मुख प्रवृत्ति करता है तथा केवलज्ञान प्राप्त कर संसार की भटकन मिटा देता है। (समयसार नाटक मोक्षद्वार, 2) .. कविवर बनारसीदास के शब्दों में
जैसे छैनी लोह की, करै एक सौं दोइ।
जड़-चेतन की भिन्नता, त्यौं सुबुद्धि सौं होइ ॥-वही, 4 . अर्थात-जिस प्रकार लोहे की छैनी काष्ठ आदि वस्तु के दो खण्ड कर उसे अलग-अलग कर देती है, वैसे ही सुबुद्धि भेद-विज्ञान के द्वारा चेतन-अचेतन को भिन्न-भिन्न कर देती है।
आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि प्रज्ञा के द्वारा इस प्रकार ग्रहण करना चाहिए कि जो जानने वाला है वह निश्चय से मैं हूँ और शेष जो भाव हैं, वे मुझसे परे, भिन्न हैं। (समयसार, गा. सं. 299) तासु लीह दिढ दिज्जइ जिम पढियइ तिम किंज्जइ। अहव ण गम्मागम्मइ तासु भंजेसहि अप्पणु' कम्मई ॥84॥
शब्दार्थ-तासु-उसकी; लीह-रेखा; दिढ-दृढ़ः दिज्जइ-दी, की जाती है; जिम-जैसा; पढियइ-पढ़ा जाता है; तिम-वैसा; किज्जइ-किया जाता है; अहव-अथवा; ण गम्मागम्मइ-आवागमन नहीं (होता); तासु-उस (से); भंजेसहि-नष्ट हो जाते हैं; अप्पणु-अपने; कम्मइं-कर्मों को। ___अर्थ-उसकी दृढ़ रेखा अंकित करनी चाहिए अर्थात् निर्णय कर धारण करना चाहिए। (आगम में) जैसा स्वाध्याय करते (पढ़ते) हैं, वैसा करना चाहिए। अथवा जाने-आने (भटकने) से क्या? श्रद्धान, ज्ञान तथा चारित्र सम्यक् होने से कर्म सहज ही नष्ट हो जायेंगे।
भावार्थ-आत्मा को समझने के लिए तथा आत्मज्ञान करने के लिए तत्त्व का निर्णय करना होता है और तत्त्व का निर्णय करने के लिए जैसा आगम में लिखा
1. अ, ब भजेसहि; क, द, स भजेसहि; 2. अ, क अप्पुणु; ब अप्पुण; द अप्पु; 3. अ कम्मइ; क, द, ब, स कम्मई।
108 : पाहुडदोहा