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रागादि भाव तो पाप हैं। उनको धर्म मानना सो झूठा श्रद्धान होने से कुधर्म है, लेकिन जिससे मिथ्यात्व भाव की पुष्टि होती है, वह सब मिथ्या है। गुरु बड़े को कहते हैं, 'तीर्थ' पार होने को कहते हैं, लेकिन जिससे संसार से पार होना दूर रहा, घोर संसार में डूबना पड़े, वह 'कुतीर्थ' है। जो लज्जा से, भय से, बड़ाई से खोटे देव, खोटे धर्म, खोटे लिंग- गुरु आदि को वन्दता है, तो वह मिथ्यादृष्टि है। कहा है
कुच्छियदेवं धम्मं कुच्छियलिंग च वंदए जो दु।
लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सो दु ॥-मोक्षपाहुड, गा. 82 खोटे तीर्थों में जाने की यह अज्ञानता तब तक बनी रहती है, जब तक यह जीव देह रूपी देवालय में स्थित सिद्ध भगवान स्वरूप निज शुद्धात्मा या परमात्मा को नहीं पहचान लेता है। जो सत्य के अन्वेषक हैं, आत्मस्वरूप के खोजक हैं, वे सद्गुरु के द्वारा बतलाई गई भेद-ज्ञान की विधि से अपने आत्मदेव को पहचान लेते
वास्तव में इष्ट के बिना सब भ्रष्ट हैं। अपना आत्मदेव अपने मन-मन्दिर में विराजमान है। वस्तुतः वही तीर्थ-क्षेत्र है। लेकिन सच्चे तीर्थ को पहचानने वाले विरले पुरुष ही होते हैं। वास्तव में बाहर में भटकने से कोई लाभ नहीं है। 'तीर्थ' 'घाट' को भी कहते हैं। जिससे संसार समुद्र से पार होते हैं, वह 'तीर्थ' है। अतः आत्मदेव के सिवाय कोई अन्य इस जीवका तारक नहीं है।
लोहिं मोहिउ ताम तुहु विसयह सुक्ख मुणेहि। गुरुहुं पसाएं जाम णवि अविचल बोहि लहेहि ॥82॥
शब्दार्थ-लोहि-लोभ से; मोहिउ-मोहित; ताम-तब तक; तुहु-तुम; विसयह-विषयों में; सुक्ख-सुख; मुणेहि-मानते हो; गुरुहुं-गुरु के पसाएं-प्रसाद से; जाम-जब तक; णवि-नहीं; अविचल-स्थिर; बोहि-बोधि (तत्त्वज्ञान); लहेहि-प्राप्त करते हो।
___ अर्थ-तुम तभी तक लोभ से मोहित हुए विषयों में सुख मानते हो, जब तक गुरु के प्रसाद से अविचल बोध नहीं पा लेते।
भावार्थ-सुख तो आत्मस्वभाव-सिद्ध है; लेकिन जिसको अपने स्वभाव का ज्ञान नहीं है, पहचान नहीं है, वह दुखी रहता है। दुःख को दूर करने के लिए अज्ञानी विषय-सुखों का सेवन करता है। सामान्य देवों को भी आत्मा के स्वभाव से उत्पन्न
1. अ, क, द, स लोहिं; ब लोहे; 2. अ बहु; क, द, ब, स तुहु; 3. अ विसयह; क, द, ब, स विसयह; 4. अ, द, स अविचल बोहि; ब अविचलु बोह; क अविचल बोहु; 5.अ लहेहिं; क, द, ब, स लहेवि।
106 : पाहुडदोहा