SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्यात्मशास्त्र में यह कहा गया है कि जिसका आत्मश्रद्धान निर्मल है अर्थात् उपयोग में जो रागादिक नहीं करता है, जिसका भाव यह है कि वह अपने आपके सहज ज्ञायक स्वरूप में प्रतीति रखता है, उसे मिथ्यात्व - अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी बन्ध नहीं होता है । सहजानन्द श्रीमनोहरलालजी वर्णी के शब्दों में “जब इस जीव को अपने शुद्ध ज्ञायक स्वरूप का भान होता है, ओह ! यह तो मैं सहज ही ज्ञानस्वरूप और आनन्द स्वरूप हूँ, तब पर का बन्धन नहीं रहता।” ( समयसार प्रवचन, भाग 10,11, पृ.9) आचार्य अमृतचन्द्र का कथन है कि यद्यपि ज्ञानी पुरुष सम्पूर्ण लोक को देख रहा है, बाहर में सभी प्रकार की क्रियाएँ कर रहा है, तथापि उनका ज्ञाता है, जाननहार है । जो जानता है सो करता नहीं है और जो करता है सो जानता नहीं है । करना कर्म का राग है और जो राग है सो अज्ञान है तथा अज्ञान बन्ध का कारण है। (समयसार कलश, 167 ) आचार्य कुन्दकुन्ददेव का कथन है कि ज्ञान का जघन्य भाव या अध्यवसान ( अज्ञान, राग ) भाव ही बन्ध का कारण है । अण्णु' णिरंजणु' देउ' गवि अप्पा दंसणणाणु । अप्पा सच्चउ मोक्खपहु एहउ मूढ वियाणु ॥8०॥ शब्दार्थ - अण्णु - अन्य; णिरंजणु - निरंजन देउ णवि - देव नहीं; अप्पा-आत्मा; दंसणणाणु-दर्शन, ज्ञान (है); अप्पा - आत्मा (के स्वभाव में ); सच्चउ-सच्चा; मोक्खपहु - मोक्ष - पथ ( है ) ; एहउ - ऐसा ; मूढ - मूढ़; वियाणु - जानो । अर्थ - दर्शन, ज्ञानमय निरंजन परमदेव आत्मा से अनन्य, अभिन्न है। वह अन्य नहीं है । हे मूढ ! ऐसा जान कि आत्मा (के स्वभाव) में सच्चा मोक्षमार्ग है । ( अर्थात् मोक्षमार्ग बाहर में नही है ) । भावार्थ - जहाँ शुद्ध आत्मा है, वहाँ दर्शन, ज्ञान, चारित्र है । शुद्ध आत्मा ज्ञान है, क्योंकि वह ज्ञान का आश्रय है। इसी प्रकार वह ज्ञान चारित्र है, क्योंकि ज्ञान - चारित्र का भी आश्रय वही है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं आदा खु मज्झणाणं आदा मे दंसणं चरितं च । आदा पच्चक्खाणं आदा मे संवरो जोगो ॥ समयसार, गा. 277 अर्थात्- निश्चय से मेरा आत्मा ही ज्ञान है । मेरा आत्मा दर्शन और चारित्र है । मेरा आत्मा प्रत्याख्यान है, और वही समाधि, ध्यान है। शास्त्र के होने पर भी 1. अ, ब अणु; क, स अण्णु; 2. अ णिरंजणि; क, द, स ब णिरंजणु; 3-4 अ देव णवि; क, द देउ पर; ब देउ णवि । 104 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy