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________________ निश्चय से अभेद का आश्रय लेने पर प्रकट हुए चैतन्य गुण से प्रकाश में आई हुई बुद्धि के विस्तार रूप तेज से सहित हमारे लिए केवल आत्मा ही उत्कृष्ट तत्त्व है। (पद्मनन्दिपंचविंशति, परमार्थ. श्लोक 12) पं. बनारसीदास के शब्दों मेंपूरब करम दहै, सरवज्ञ पद लहै; गहै पुण्यपंथ फिर, पाप मैं न आवना। करुना की कला जागै, कठिन कषाय भागै; लागै दानशील तप, सु फल सुहावना ॥ पावै भवसिन्धु-तट, खोलै मोक्षद्वार-पट; शर्म साध धर्म की, धरा में करै धावना। एते सब काज करै, अलख को अंग धरै; चेरी चिदानन्द की, अकेली एक भावना ॥-बनारसीविलास, 86 पाउवि अप्पहिं परिणवइ कम्मई ताम करेइ। परमणिरंजणु जाम णवि णिम्मलु' होइ मुणेइ ॥79॥ शब्दार्थ-पाउ-पाप; वि-भी; अप्पहि-आत्मा (स्वयं से); परिणवइपरिणमन करता है; कम्मइं-कर्मों को; ताम-तब तक; करेइ-करता है; परमणिरंजणु-परमनिरंजन; जाम-जब तक; णवि-नहीं; णिम्मलु-निर्मल; होइ-होता है; मुणेइ-जानता है। अर्थ-आत्मा में पाप के परिणाम तथा कर्मबन्ध तभी तक होता है, जब तक यह जीव अपने उपयोग में शुद्धता प्रकट कर परम निरंजन (स्वरूप) को जान नहीं लेता। भावार्थ-मिथ्यादृष्टि जीव के जो कर्म का बन्ध होता है, वह मिथ्यात्व, रागादिक विभाव भावों के कारण होता है; बाह्य क्रियाओं से नहीं होता है। न तो मन, वचन, शरीर की चेष्टाएँ कर्म-बन्ध की कारण हैं और न चेतन-अचेतन का दलन-मलन बन्ध का कारण है। वास्तव में रागादिक के साथ यदि उपयोग एकता को प्राप्त होता है, तो बन्ध होता है; अन्यथा नहीं। पर भावों में ममत्व परिणाम, राग में राग का होना, राग में उपयोग का फँसना, राग की आसक्ति होना-ये ही बन्ध के कारण हैं। क्योंकि राग के साथ उपयोग भूमि में अशुद्धता प्रकट होती है। 1. अ, क, द, स पाउ; ब पावु; 2. अ, ब अप्पहि; क, द अप्पहि; 3. अ किम इत; क, द, ब, स कम्मइं; 4. क णिम्मणु; अ, द, स णिम्मलु, णिम्मल। पाहुडदोहा : 103
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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