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भाव यह है कि जिनदेव की सच्ची सेवा करने वाला अपने आप में आप रूप अनुभव करता है। ऐसे जिनदेव के सेवक के हृदय में परमात्मा का निवास होता है, और वही जन्म-मरण का अभाव कर मुक्ति को प्राप्त करता है। जिन-दर्शन की बड़ी महिमा है। पं. बनारसीदास कहते हैं-"जिसके मुख का दर्शन करने से भक्त जनों के नेत्रों की चंचलता नष्ट होती है और स्थिर होने की आदत हो जाती है। जिन-मुद्रा को टकटकी लगाकर देखने से केवलीभगवान् का स्मरण हो जाता है। जिसके सामने सुरेन्द्र की सम्पदा भी तिनके के समान तुच्छ भासने लगती है, उनके गुणों का गान करने से हृदय में ज्ञान का प्रकाश होता है और जो बुद्धि मलिन थी, वह पवित्र हो जाती है। जिनराज की मूर्ति की प्रत्यक्ष महिमा है, क्योंकि जिनबिम्ब साक्षात् जिनेन्द्र के समान सुशोभित है। (समयसारनाटक, चतुर्दशगुणस्थानाधिकार, पद सं.2)”
कम्मु पुराइउ' जो खवई अहिणव पेसु ण देइ। परमणिरंजणु जो णवइ सो परमप्पउ होइ ॥78॥
शब्दार्थ-कम्मु-कर्म; पुराइउ-पूर्व के; जो खवइ-जो खपाता (नष्ट करता) है, अहिणव-नये; पेसु-प्रवेश; ण देइ-नहीं देता है; परमणिरंजणु परमनिरंजन (को); जो; णवइ-नमस्कार करता है, सो-वह; परमप्पउ-परमात्मा; होइ-होता है।
____ अर्थ-जो पूर्व के (पुराने) कर्मों का क्षय करता है तथा नवीन (कर्मों) का प्रवेश नहीं होने देता है, वही (श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र से) परम निरंजन देव को नमस्कार करता है और स्वयं परमात्मा हो जाता है।
भावार्थ-“परमात्मप्रकाश” में यह दोहा किंचित् परिवर्तन के साथ मिलता है। मुनिश्री योगीन्द्रदेव कहते हैं कि वीतराग स्वसंवेदन से ज्ञानी पूर्व उपार्जित कर्म का क्षय करता है और नये कर्मों को रोक देता है। जो बाहरी और भीतरी परिग्रह को छोड़ कर परम शान्त भाव को प्राप्त करता है, वह वीतरागी सन्त नियम से समता भाव धारण करता है। कहने का अभिप्राय यह है कि जो मुनि सम्पूर्ण परिग्रह को छोड़ कर सभी शास्त्रों का रहस्य जान कर वीतराग परमानन्द सुखरस का आस्वादी हुआ समभाव में रहता है, वही पूर्व के कर्मों का क्षय करता है और नवीन कर्मों को रोकता है। आचार्य पद्मनन्दि का कथन है कि व्यवहार मार्ग में स्थित हम भक्ति में तत्पर हो कर जिनदेव, जिनप्रतिमा, गुरु, मुनिजन और शास्त्रादि सब को मानते
क पुरायउ; स पुराई; 2. अ, क, द, स खवइ व खवेइ; 3. अ, ब सो;
1. अ, द, ब पुराइ क, द, स जो।
102 : पाहुडदोहा