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निःशेषकर्मफलसंन्यसनान्ममैवं सर्वक्रियान्तरविहारनिवृत्तवृत्तेः। चैतन्यलक्ष्म भजतो भृशमात्मतत्त्वं
कालावलीवमचलस्य वहत्वनंता ॥ -समयसारकलश, 231 भावार्थ यह है कि सकल कर्मों के फल का त्याग करके ज्ञानचेतना की भावना करने वाला ज्ञानी कहता है कि सभी कर्मों के फल का संन्यास करने से मैं चैतन्यलक्षण आत्मतत्त्व को अतिशयता से भोगता हूँ। विभावरूप क्रिया में अब मेरी प्रवृत्ति नहीं होती। इस प्रकार आत्मतत्त्व के उपभोग में अचल, मेरी उपयोग की प्रवृत्ति जो कि प्रवाह रूप से अनन्त है, वह अन्य किसी में कभी न जाए।
ज्ञानचेतना की भावना का फल यह है कि उस भावना से जीव अत्यन्त तृप्त रहता है। उसे अन्य तृष्णा नहीं रहती। भविष्य में वह केवलज्ञान उत्पन्न कर सभी कर्मों से रहित मोक्ष-अवस्था को प्राप्त करता है।
जोइय हियडइ जासु पर इक्कु वि णिवसइ देउ। जम्मणमरणविवज्जियउ सो पावइ परलोउ ॥77॥
शब्दार्थ-जोइय-योगी (सम्बोधन); हियडइ-हृदय (में); जासु-जिसके पर-परम; इक्कु वि-एक; णिवसइ-निवास करता है; देउ-देव; जम्मणमरणविवज्जियउ-जन्म-मरण से रहित; सो-वह; पावइ-पाता है; परलोउ-परलोक।
अर्थ-हे जोगी! जिसके हृदय में एक परमदेव निवास करता है, वह जन्म-मरण से रहित परलोक (परम गति) प्राप्त करता है।
भावार्थ-वास्तव में जिनदेव निजदेव है। जिनदेव का दर्शन निज दर्शन है और जिनवर की उपलब्धि निज भगवान आत्मा की उपलब्धि है। इस उपलब्धि को प्राप्त समाधि में लीन रहने वाले साधु जन्म-मरण के दुःख से दूर हो जाते हैं। भैया भगवतीदास कहते हैं कि जो जिनेन्द्र भगवान का सेवक है, वह पुण्य-पाप से रहित निज. शुद्धात्मा की अनुभूति से विलसित होता है। उनके ही शब्दों में
जो जिनदेव की सेव करै जग, ता जिनदेव सो आप निहारै। जो शिवलोक वसै परमातम, ता सम आसम शुद्ध विचारै। आप में आप लखै अपनो पद, पाप रु पुण्य दुहूँ निरचारै। सो जिनदेव को सेवक है जिय, जो इहि भांति क्रिया करतारै।
-ब्रह्मविलास, 12 ___ 1. अ इक्कु वि; क, द एकु जि; ब, स एक्कु वि; 2. अ, ब, स सो; क, द तो।
पाहुडदोहा : 101