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न्याय रस्मसार:पंचम अध्याय
है । यहाँ दिये गये देवदत्त दृष्टान्त में साध्य की सत्ता रहने पर भी हेतु के सभाप में संदेह है । यह सर्वदर्शी नहीं है क्योंकि मुनिविशेष की तरह यह रागादिवाला है। यहाँ दृष्टान्तरूप मुनिविशेष में साध्य सर्वशित्व का और साधन रागद्वषादि का दोनों का संदेह है । इसलिये यह संदिग्धोभय धर्मवाला दृष्टान्नाभास है । "यह पुरुष रागद्वष आदि बाला है क्योंकि यह वक्ता है। जैसा कि इष्ट पुरुष यहाँ इस इप्ट पुरुष रूप दृष्टान्त में यद्यपि साध्य और साधन दोनों का सद्भाव है. परन्तु फिर भी ऐसी व्याप्ति-अन्वय--नहीं बन सकती है कि जो-जो वक्ता होता है वह वह रागादि वाला होता है । इसलिये ग्रह अनन्वय दृष्टान्ताभास है। शब्द अनित्य है क्योकि वह कृतक है जैसा कि घट। तो यहाँ पर जो घट दृष्टान्त है उसमें माध्य और साधन दोनों की सत्ता ह । परन्तु फिर भी जहाँ-जहाँ कृतकता होती है बहाँ-वहाँ अनित्यता होती है। इस प्रकार से उसे वादी ने अपने बचन द्वारा प्रदर्शित नहीं किया है। इससे यह अप्रदर्शितान्वय नाम का दृष्टान्ता भास है । इसी प्रकार जब कोई ऐसा कहता है कि शब्द अनित्य है क्योंकि वह कृतक है जैमा कि घट । तो यहाँ पर जो घट रूप दृष्टान्त है उसमें साध्य और साधन दोनों का सद्भाव है परन्तु फिर भी उसमें जो-जो कृतक होता है वह-वह अनित्य होता है ऐसी अन्वय व्याप्ति न कहकर जो-जो अनित्य होता है वह-वह कृतक होता है ऐसी विपरीत अन्य व्याप्ति कही है और उसमें तृष्टान्त घट का प्रदशित किया है अतः यह विपरीतान्वय नाम का दृष्टान्ताभास है ।।३४॥ . बंध पाताभा' · ..
सूत्र --वैधHदृष्टान्ताभासोऽप्येवमेवासिद्ध संदिग्ध साध्यादि व्यतिरेकाम्यतिरेकोक्त्यादि योगात ॥३५||
व्याख्या--साधर्म्यदृष्टान्ताभास की तरह वैधर्म्यदृष्टान्ताभास भी नौ प्रकार का है । जैसे-असिद्ध साध्यव्यतिरेक, असिद्ध साधन व्यतिरेक, असिद्ध उभय व्यतिरेक, संदिग्ध साध्यव्यतिरेक, संदिग्ध साधन व्यतिरेक, संदिग्ध उभय व्यतिरेक, केवल अव्यतिरेक, तथा आदि पद से गृहीत अप्रदर्शित व्यतिरेक और विपरीत व्यतिरेक । इस प्रकार से ये नौ भेद वैधर्म्यदृष्टान्ताभास के हैं।
अन्वय दृष्टान्त में जिस प्रकार से साधन के सद्भाव में साध्य का सद्भाव दिवाया जाता है उसी प्रकार से वैधयं दृष्टान्त में साध्य के अभाव में माधन का अभाव दिखाया जाता है । कहने का निष्कर्ष यही है कि जिस वैधदृष्टान्त में साध्य का, साधन का या दोनों का व्यतिरेक-अभाव असिद्ध हो, या संदिग्ध हो, अथवा ठीक तरह से प्रकट न किया गया हो. या विपरीत रूप से प्रकट किया गया हो वह वैधर्म्य दृष्टान्ताभास है । जब कोई ऐसा कहता है—अनुमान भ्रान्त है क्योंकि वह प्रमाण है। यहाँ व्यतिरेक इस प्रकार से बनाना चाहिये-जो भ्रान्त नहीं होता है वह प्रमाण भी नहीं होता है जैसे-कि स्वप्नशान । "अनुमान भ्रान्त है" इस प्रकार कथन में भ्रान्त यह साध्य है और प्रमाणलान् यह हेतु है व्यतिरेक में पहले साध्याभाव और बाद में हेत्वाभाव प्रदर्शित किया जाता है। यहाँ वह इस प्रकार से प्रदर्शित किया गया है--जो प्रान्त नहीं होता (यह साध्याभाव है वह प्रमाण भी नहीं होता (यह हेत्वभाव है) जैसा
स्वप्नशान यह वैधयंटाटान्त है)। यह असिद्ध साध्य व्यतिरेक बाला होने से वधयदृष्टान्ताभास है-. क्योंकि स्वप्नज्ञान में भ्रान्तत्व का अभावरूप जो साध्य व्यतिरेक है वह नहीं पाया जाता है प्रत्युत प्रान्तत्व ही पाया जाता है । इसी प्रकार जब कोई ऐसा कहता है कि प्रत्यक्ष निर्विकल्पक है क्योंकि वह प्रमाण है। यहाँ निर्विकल्पक यह साध्य है और प्रमाणत्वात् यह हेतु है जो निर्विकल्पक नहीं होता वह प्रमाण भी नहीं होता यह व्यतिरेक है । इसमें दृष्टान्त अनुमान है। यह अनुमानम्प दृष्टान्त असिद्ध