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मायरत्नसार : पंचम अध्याय
। ५३ को देखता है तो कहता है कि यहाँ पर अग्नि है क्योंकि इसमें से धूम निकल रहा है। उसकी इस बात को सुनकर गुरुजन उससे कहते हैं कि यह धूम नहीं है, यह तो भाप है । वाष्प के होने पर अग्नि नहीं होती। अब वह इस बात को जानकर जब कभी पर्वत में उड़ते हुए धूम को देखता है तो वह उसके स्वरूप में सन्देहशील बन जाता है और विचारने लग जाता है कि कहीं यह बाष्प तो नहीं है । इस तरह यह हेतु उसकी अपेक्षा संदिग्धासिद्ध कहा गया है, क्योंकि उसके स्वरूप में उसे संदेह है। इसी प्रकार से और भी इस हेत्वाभास के भेद हैं जो प्रमाण मीर्मासा आदि ग्रन्थों से जाने जा सकते हैं। जिस हेतु की व्याप्ति साध्य से बिरुद्ध के साथ ही होती है उसका नाम विरुद्ध हेत्वाभास है । जैसे शब्द नित्य है क्योंकि यह किया हुआ होता है । यहाँ पर हेतु की व्याप्त अपने साध्य से विरुद्ध के साथ ही है। जो हेतु पक्ष सपक्ष में रहता हुआ भी विपक्ष के साथ रहता है वह अनेकान्तिक हेतु है जैसे यह पर्वत धूमवाला है क्योंकि अग्निवाला है---यहाँ अग्निवाला यह हेतु पर्वतरूप पक्ष और रसोईघर रूप सपक्ष में रहता हुआ भी विपक्ष जो अग्नियुक्त अयोगोलक है उसमे भी रहता है, अतः अनैकान्तिक है । अब सूत्रकार स्वयं इन हेत्वाभासों का स्पष्टीकरण सूत्रों द्वारा करते हैं ॥ २६ ।। असिद्ध हेत्वाभास
सूत्र--निश्चितान्यथानुपपत्त्यभावोऽसिद्धोऽनेकविधः ॥ ३० ॥
अर्थ-अपने साध्य के जिस हेतु की व्याप्ति किसी भी प्रमाण से निश्चित नहीं होती है उसे असिद्ध हेत्याभास कहते हैं और यह अनेक प्रकार का है । २६- सूत्र की टीका के द्वारा ये अनेक प्रकार प्रकट क्रिये ही जा चुके हैं ।। ३० ।। विरुद्ध हेत्वाभास
सूत्र-साध्याभावे नव निश्चित नियम को विरुद्धः ॥३१॥
व्याख्या-जिस हेतु का अविनाभावरूप नियम अपने साध्य के अभाव के साध्य से विरुद्ध के साथ निश्चित होता है ऐसा वह हेतु विरुद्ध हेत्वाभास कहा गया है । जैसे-जब कोई ऐसा कहता है कि शब्द नित्य है क्योंकि वह कृतक है । यहाँ कृतक हेतु की व्याप्ति अपने साध्य नित्य के अभावरूप-विरुद्ध ---अनित्य के साथ हैं ॥३१|| अमैकान्तिक
सूत्र---पक्ष-सपक्ष-विपक्षेऽपि वृत्तिमाननैकान्तिकः ॥३२॥
व्याख्या-जो हेतु पक्ष, सपक्ष में रहता हुआ विपक्ष में भी रहता है वह अनैकान्तिक हेतु है। जैसे-जब कोई ऐसा कहता है कि---यह पर्वत धूम बाला है, क्योकि यह अग्नि वाला है । यहाँ पर धूम वाला है यह साध्य है और अग्नि वाला है यह हेतु है । सो यह हेतु अपने पक्षरूप पर्वत में भी रहता है और सपक्ष जो रसोईघर है उसमें भी रहता है । परन्तु विपक्ष जो जलहदादि हैं उनसे यह व्यावृत्त नहीं है। किन्तु उनमें भी रहता है । अतः जो ऐसा हेतु होता है वही अनेकान्तिक हेत्वाभास कहा गया है ॥३२॥ अनकान्तिक हेत्वाभास के भेद--
सूत्र--संदिग्ध निश्चित विपक्षवृत्ति भेदाद् असौद्विविधः ।।३३।।
व्याख्या-यह अनेकान्तिक हेत्वाभास संदिग्ध विपक्षवृत्ति और निश्चित विपक्षवृत्ति के भेद से दो १. "स्वोत्पत्ती अपेक्षित परब्यापारो हि कृत उच्यते" अपनी उत्पत्ति में जो पर के व्यापार को अपेक्षा रखता है,
कृतक कहलाता है।