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न्यायरत्नसार : चतुर्थ अध्याय देखी जाती है । इस कारण भी वह सामान्य विशेष आदि अनेक धर्मों वाला है। यदि पदार्थ ऐसा न हो तो वह प्रमाण का विषय नहीं हो सकता।
व्याख्या अनेक पदार्थों में एक सी प्रतीति उत्पन्न करने वाला और उन्हें एक ही शब्द का वाच्य बनाने वाला धर्म अनुवृत्तप्रतीति-अनुगतप्रतीति कहलाती है । जैसे- अनेक गायों में यह भी गाय है, यह भी गाय है, इस प्रकार का ज्ञान और शब्द प्रयोग कराने वाला गोत्व धर्म होता है । यही सामान्य धर्म है । तया एक ही जाति वाले पदार्थों में भिन्नता की-विशिदाकारता की--प्रतीति कराने वाला धर्म ज्यादत्तप्रतीति कहलाती है। जैसे गोत्व विशिष्ट गायों में यह नीली गाय है और काली से चूंकि इस प्रकार की प्रतीति पदार्थों में होती है अतः पदार्थ सामान्य विशेष दोनों धर्मों वाले हैं, यह सिद्ध होता है । इसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ में पूर्व आकार का विनाश, उत्तराकार उत्पाद और इन दोनों अवस्थाओं में मूल पदार्थ का अवस्थान देखा जाता है अतः उत्पाव-व्यय से पदार्थ में विशेष धर्मात्म का और ध्रौव्य रूप से सामान्यरूपता सिद्ध हो जाती है। इस कारण पदार्थ न केवल सामान्यरूप ही है और न केवल विशेषरूप ही है किन्तु पररपर सापेक्ष सामान्य-विशेषरूप ही है और ऐसा ही वह प्रमाण का विषय होता है ॥३१॥ सामान्य के भेद :
सूत्र--सामान्य द्विविधं तिर्य गूलतासामान्यभेदात् ।। ३२ ॥
व्याख्या सामान्य दो प्रकार का होता है-एक तिर्यक् सामान्य और दूसरा उर्ध्वता सामान्य । जो अपनी पूर्व और उत्तरवर्ती पर्याय में समान रूप से रहता है वह उर्ध्वता सामान्य है । जैसे-मृत्तिका, कपाल, कोश, कुशुल आदि समस्त अपनी पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती पर्यायों में एकरस होकर रहती है । अतः यह उह्मता सामान्य रूप है तथा जो अपने-अपने व्यक्तियों में समान परिणाम बाला होता है वह तिर्यक् सामान्य हैं । जैसे-खंडी, मुण्डी, गाय आदिकों में युगपत रहने वाला गोत्वधर्म ।। ३२॥ तियेक सामान्य का लक्षण :
सूत्र-सदृश परिणामरूपं तिर्यक् सामान्यम् ।। ३३ ।।
व्याख्या--जो सामान्य समान परिणाम रूप होता है वह तिर्यक् सामान्य कहा गया है । ३१वें सूत्र द्वारा इसका भाव स्पष्ट कर दिया गया है ॥ ३३॥
सूत्र-पूर्वापर विवर्स व्याप्यूयता सामान्यम् ।। ३४ ॥
व्याख्या-जो सामान्य अपनी पूर्व और उत्तर पर्यायों में रहता है वह उर्ध्वता सामान्य है। इसका भी भाव ३१वे सूत्र द्वारा स्पष्ट कर दिया गया है ॥ ३४ ॥ विशेष का कथन :
सूत्र-गुण-पर्याय मेवाद्विशेषोऽपि द्विविधः ॥ ३५॥
ध्याल्या-गुण और पर्याय के भेद से विशेष भी दो प्रकार का होता है । यह पहले स्पष्ट कर दिया गया है कि परस्पर में जो भिन्नता की बुद्धि का जनक होता है वह विशेष है । यह विशेष गुण और पर्याय के भेद से दो प्रकार का कहा गया है ।। ३५ ।।
सूत्र-अभिन्नकालवतिनः सुखज्ञानादयो गुणाः, भिन्नकालबसिनश्व सुख - दुःखावयः पर्यायाः ॥३६ ॥
___अर्थ---जो द्रव्य में एक साथ एक ही काल में ऐसे सुख, ज्ञानादिक गुणरूप विशेष हैं और जो द्रष्य में एक ही काल में एक साथ नहीं रहते हैं ऐसे दुःख-सुख आदि परिणाम पर्याय रूप विशेष है ॥३६ ।।
| चतुर्थ अध्याय समाप्त ॥