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न्यायरत्नसार : चतुर्थ अध्याय
|४३ जैन दार्शनिकों ने यह सूत्र कहा है । इसके द्वारा यह समझाया गया है कि जिस प्रकार दीपक घटादिक पदार्थों से उत्पन्न नहीं होता है फिर भी उनका वह प्रकाशक होता है। इसी प्रकार शान भी विषय-जय --घटादिकों से उत्पन्न नहीं होता है फिर भी उनका प्रकाशक-जानने वाला होता है। ज्ञान में जैसा-जैसा आवरण कर्म का क्षयोपशम होता है ज्ञान वैसा-वैसा उन-उन पर पदार्थों को जानता है और इसी से पदार्थ की प्रतिनियत व्यवस्था होती है । पट-ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से पट-ज्ञान पट को जानता है और घट-ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से घट-ज्ञान घट को जानता है। घट को जानते समय पट-ज्ञान को आवत करने वाला पट-ज्ञानावरण कर्म मौजूद है तो बह घट-ज्ञान उस समय पट को नहीं जान सकता है ।। २८ ॥
सूत्र-न ते तवंगे तयोर्व्यस्त सामस्त्येन व्यभिचारितस्वात् ॥२९॥
अर्थ-तदुत्पत्ति और तदाकारता ये दोनों ज्ञान के द्वारा प्रतिनियत पदार्थ की व्यवस्था कराने में कारण नहीं हैं । क्योंकि स्वतन्त्र तदुत्पत्ति में और स्वतन्त्र तदाकारता में तथा तदुत्पत्ति-तदाकारता दोनों में व्यभिचार पाया जाता है।
व्याख्या-ज्ञान का पदार्थ से उत्पन्न होना यह तदुत्पत्ति है । ज्ञान का पदार्थ के आकार होना तदाकारता है । वौद्ध सिद्धान्त इन दोनों से ज्ञान के द्वारा प्रतिनियत पदार्थ की व्यवस्था होना मानते हैं । उनका कहना है कि जो ज्ञान जिस पदार्थ से उत्पन्न होता है और उसी के आकार होता है वह उसी पदार्थ को जानता है, अन्य को नहीं । इसलिये ऊपर जो प्रतिनियत पदार्थ की व्यवस्था में कारण आवरण कर्म की क्षयोपशम रूप शक्ति प्रकट की गई है वह ऐसी व्यवस्था नहीं करती है । ऐसे बौद्ध अभिमत का ही इस सूत्र द्वारा विचार किया गया है। इसमें यह समझाया गया है कि चौद्धों की ही मान्यता के अनुसार पूर्वक्षणज्ञान उत्तरक्षणज्ञान को उत्पन्न करता है अतः उसमें तदुत्पत्ति-तदाकारता होने पर भी वह उत्तरक्षणज्ञान पूर्वक्षणज्ञान का व्यवस्थापक नहीं माना गया है । इस तरह इनमें प्रत्येक में और दोनों में व्यभिचारिता आती है । अतः स्वावरणक्षयोपशमरूपशक्ति के कारण ही ज्ञान प्रतिनियत पदार्थ की व्यवस्था करता है, यही सिद्धान्त निर्दोष है 1॥२६॥ प्रमाण का विषय :
सूत्र-प्रमाणविषयीमूतोऽर्थः सामान्य-विशेषाधनेकान्तात्मकः ॥३०॥ व्याख्या-प्रमाणभूत ज्ञान का विषय सामान्य एवं विशेष आदि धर्मों वाला पदार्थ होता है।
कोई अन्यतीथिक जन प्रमाण का विषय केवल सामान्ग धर्म वाले पदार्थ को ही मानते हैं, कोई अन्यतीथिक केवल बिशेष धर्म वाले पदार्थ को ही मानते हैं तब कि जैन दर्शन सामान्य और विशेष धर्म से दोनों से युक्त हुए अनेकान्तात्मक पदार्थ को प्रमाणभूत ज्ञान का विषय मानता है । यही बात ऊपर के सूत्र द्वारा पुष्ट की गई है । क्योंकि सामान्य को छोड़कर विशेष और विशेष को छोड़कर सामान्य स्वतन्त्र रूप से अपना अस्तित्व नहीं रखते हैं । सामान्य और विशेष—ये पदार्थ के निज धर्म हैं !॥३०॥ स्वतन्त्र पदार्थ रूप नहीं है, पदार्थ में सामान्य-विशेषात्मकता समर्थन :
सूत्र-अनुवृत्तव्यावृत्त प्रतीति विषयत्वात् पूर्वोत्तराकार - हानोपादानावस्थानलक्षण - परिणत्याऽथंक्रियाकारित्याच्च ।।३१।।
अर्थ-प्रत्येक पदार्थ सामान्य विशेग धर्म वाला है, क्योंकि वह अनुगतप्रतीति का और विशिप्टाकारप्रतीति का विषय होता है। तथा पूर्व-आकार के त्यागरूप और उत्तर-आकार के धारण करने रूप एवं इन दोनों पर्यायों में मौलिक रूप से अवस्थान होने रूप परिणमन से अर्थक्रियाकारिता उसमें