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न्यायरत्नसार : तृतीय अध्याय
|२७ प्रकार का है। यहाँ साध्य रूपविशेष है और उसका अविरुद्ध सहर रसविशेष है । उसकी उपलब्धि होने रूप विशेष का अनुमान किया गया है । गाय के जैसे सींग साथ-साथ होते हैं उनमें कार्य कारण सम्बन्ध नहीं होता। इसी प्रकार से रूप रसादिक का सम्बन्ध होता है । अतः रात्रि में प्रकाशाभाव में चखे गये रमविशेष के स्वाद से उसके सहचारी रूपविशेष की अनुमिति हो जाती है । इस प्रकार से ये विधिरूप हेतुओं द्वारा विधिरूप' साध्य की साधक ६ उपलब्धियाँ दृष्टान्तों द्वारा प्रस्फुटित की हैं। अब विधिरूप हेतुओं द्वारा साध्य के प्रतिषेध की साधिका जो उपलब्धियां हैं वे समझाई जाती हैं ॥ ४५ ॥ विरुद्धोपलब्धि का कथन :
सूत्र-साध्यविरुद्धोपलब्धिप्रतिषेधानुमितो सप्तविंधा विरुद्धस्वभाव-व्याप्याच पलब्धि भेदात् ॥ ४६ ।।
__ अर्थ--निषेध सिद्ध करने वाली साध्यविरुद्धोपलब्धि-विधिरूप प्रतिषेधसाधकोपलब्धि स्वभावविरुद्धोपलब्धि, विरूद्धव्याप्योपलब्धि आदि के भेद से सात प्रकार की कही गई है।
व्याख्या-जब साध्य से अविरुद्ध व्याप्यादि प हेतुओं की प्राप्ति होती है लब उन हेतुओं द्वारा साध्य का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है यह बात अभी-अभी स्पष्ट उदाहरणों से स्पष्ट की जा चुकी है। अव इस सूत्र द्वारा यह सपनाम : न्हा है कि जो हेतु आपने साध्य से बिरुद्ध हो और उसकी वहाँ उपलब्धि हो तो वह नियम से साध्य के प्रतिषेध को ही सिद्ध करेगी। इसीलिये विरुद्धोपलब्धि को साध्य के प्रतिषेध की साधिका कहा गया है। इसके स्वभाव विरुद्धोपलब्धि आदि के भेद से सात प्रकार कहे गये हैं जो इस प्रकार से हैं-स्वभाव विरुद्धोपलब्धि (१), विरुद्ध व्याप्योपलब्धि (२), विरुद्ध कार्योपलब्धि (३), विरुद्ध कारणोपलब्धि (४), विरुद्ध पूर्वचरोपलब्धि (५), विरुद्ध उत्तरचरोपलब्धि (६), और विरुद्धसहचरोपलब्धि (७) ।अब सूत्रकार आगे के सूत्रों द्वारा इन्हें ही दृष्टान्त देकर स्पष्ट करते हैं ।। ४६॥
सूत्र-आधा-सर्वथकान्तपक्षो न संभवति । अनेकान्त पक्षोपलम्भादिति ।। ४७ ॥
व्याख्या-विरुद्धोपलब्धि का प्रथम भेद जो स्वभाव विरुद्धोपलब्धि है उसका स्वरूप इस प्रकार से है । जैसे—सर्वथा एकान्त पक्ष संभावित नहीं होता है क्योंकि अनेकान्त पक्ष की उपलब्धि है। यहाँ प्रतिषेध्य सर्वथा एकान्त पक्ष है, उसका प्रतिषेधक अनेकान्त पक्ष है । उसकी उपलब्धि से उसका प्रतिषेध किया गया है क्योंकि यह एकान्त पक्ष से विरुद्ध स्वभावरूप है अतः अनेकान्त पक्ष की उपलब्धि से उस एकान्त पक्ष का निषेध किया गया है ॥ ४७ ।।। विरुद्ध व्याग्योपलब्धि का कथन :
सूत्र-द्वितीया--अस्मिस्तत्व निश्चयोनास्ति तत्व-सन्देहात् ।।४।।
ध्याख्या-विरुद्ध व्याप्योपलब्धि यह विरुद्धोपलब्धि का द्वितीय भेद है। इसका स्तुलासा इस प्रकार से है-इस प्राणी में तत्त्वों का निश्चय नहीं है क्योंकि इसे वहाँ सन्देह है । यहाँ तत्वों का निश्चय प्रतिषेध है उससे विरुद्ध अनिश्चय है और उसका व्याप्य सन्देह है । उसकी उपलब्धि इस प्राणी में है, इससे तत्त्व निश्चय का अभाव वहाँ अनुमति होता है ॥४८॥ विरुद्ध कार्योपलब्धि का उदाहरण :
सूत्र--तृतीया-अस्मिन्नास्ति क्रोधोपशमो बदन विकारोफ्लम्भात् ॥४६॥ ध्याल्या-विरुद्ध कार्योपलब्धि यह विरुद्धोपलब्धि का तीसरा भेद है । इसका अभिमत सा है