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न्यायरत्नसार : तुतीय अध्याय व्याख्या- इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने यह समझाया है कि परार्थानुमान का एक ही प्रकार नहीं है । दूसरे को जिस किसी भी तरह सरलता से प्रमेय की प्रतीति हो जाय उसी तरह से यल करके समझाना चाहिये । दूसरों को समझाना पमर्थानुमान है । व्युत्पन्न तीव्र बुद्धि बाले शिष्य की अपेक्षा पूर्वोक्त रूप मे दो ही अङ्ग कहे गये हैं । परन्तु जो प्रतिपाद्य पक्ष आदि के ज्ञान से अभी तक अनभिज्ञ है, उसे समझाने के लिये पांचों अद्धों तक का भी प्रयोग आवश्यक है। इस तरह प्रयोग की परिपाटो प्रतिपाद्य के आशय के अनुसार कही गई जाननी चाहिये ॥२५॥ पा का स्वरूपाचन ---
सूत्र--साध्यधर्माधारः पक्षः ॥२३॥
अर्थ-साध्य रूप धर्म का जो आधार होता है उसका नाम पक्ष है । जैसे--"पर्वतोऽयं वह्निमान् धूमात्" इस अनुमान प्रयोग में वह्निरूप साध्य धर्म का आधार पर्वत है। इसी का नाम पक्ष है ॥२६।। प्रतिज्ञा का स्वरूप--
सूत्र-धामसमुदायरूप पक्षस्य प्रतिपादनं प्रतिज्ञा यथा पर्वतोऽयमग्निमानिति ।।२७।।
अर्थ-धर्म और धर्मी का ममुदाय रूप जो पक्ष है उस पक्ष का कथन करना, यह प्रतिज्ञा है। जैसे-"यह पर्वत अग्नि वाला है" इतना कहना। यहां अग्नि धर्म है और पर्बत धर्मी है । यह पर्वत अग्नि वाला है, ऐसा कहना प्रतिज्ञा है । यह प्रतिज्ञा परार्धानुमान को अपेक्षा से ही कही है। स्वार्थानुमान की अपेक्षा से नहीं, क्योंकि वचनों द्वारा प्रतिपादन करना परार्थानुमान में ही होता है, स्वार्थानुमान में नहीं। इसलिये स्वार्थानुमान में धर्मर्मिसमुदाय पक्ष कहा गया है ।।२७॥ हेतु का स्वरूप
सूत्र-साध्यायिनाभावी हेतुः ||२८|| अर्थ--साध्य के बिना जो नहीं होता है ऐसा साध्याविनाभावी हेतु कहा गया है।
व्याख्या हेतु यदि होगा तो नियम से साध्य के सद्भाव में ही होगा और जो अपने साध्य के बिना होगा वह हेतु नहीं हेत्वाभास होगा। हाँ, साध्य अपने साधन के बिना भी हो सकता है । क्योंकि साध्य व्यापक होता है और साधन उसका व्याप्य होता है । व्याप्य व्यान को व्याप्त करता है, व्याएक व्याप्य को व्याप्त नहीं करता है । ऐसा नियम है, जहाँ-जहाँ शिशपा होगा वहाँ-वहाँ नियम से वृक्षत्व होगा । पर जहाँ वृक्षत्व होगा वहाँ शिशपा हो भी और न भी हो। इसीलिये साध्य के साथ अविनाभावी जो होता है वही समीचीन हेतु कहा गया है । यद्यपि इस लक्षण से ही साधन की ठीक-ठीक जानकारी हो जाती है फिर भी अनेक दार्शनिकों ने दूसरे शब्दों में भी साधन का लक्षण बतलाया है। जैसे—जिसमें पक्षधर्मता, सपनेसत्त्व और विपक्ष से व्यावृत्ति हो उसे साधन कहते हैं । साध्य जहाँ सिद्ध किया जाय या साध्य के रहने का
हो उसका नाम पक्ष है। जैसे अग्नि के अनमान में पर्वत । जहाँ साध्य के रहने का निश्चय हो उसे सपक्ष कहते हैं, जैसे-उसी अनुमान में रसोईघर आदि । जहाँ साध्य के अभाव का निश्चय हो उसे विपक्ष कहते हैं, जैसे-तालाब आदि । मरूप हेतु पर्वतरूप पक्ष में और रसोईघर आदि भप सपक्ष में रहता है और विपक्ष-तालाब आदि में नहीं रहता है । इस तरह यह हेतु श्रिलक्षण वाला सिद्ध होता है । इन
१. "प्रयोग परिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधतः ।"