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न्यायरत्नसार : तृतीय अध्याय
होता है और सादृश्य आदि को विषय करने वाला सादृश्य प्रत्यभिज्ञा नाम का ज्ञान होता है। जैसे - गवय ( रोझ ) गाय के समान होता है । गवय के प्रत्यक्ष होने पर गाय का स्मरण हो आता है । यह उससे विलक्षण है, यह उससे दूर है इत्यादि उदाहरण भी वैलक्षण्य प्रत्यभिज्ञा ज्ञान के और प्रतियोगी प्रत्यभिज्ञा ज्ञान के जानना चाहिये। दो पदार्थों में समानता को बतलाने वाला सादृश्य प्रत्यभिज्ञान होता है, और दो पदार्थों में विसदृशता को बतलाने वाला वैसादृश्य प्रत्यभिज्ञान होता है । जैसे- गाय भैंस से विलक्षण है । दो पदार्थों की तुलना भी प्रत्यभिज्ञान के द्वारा की जाती है-जैसे यह आंबला उस आम से छोटा है । किन्हीं - किन्हीं दार्शनिकों ने एक प्रत्यभिज्ञान को प्रत्यक्ष के भीतर ही शामिल किया है । परन्तु यह उसके अन्तर्गत नहीं हो सकता है। क्योंकि प्रत्यक्ष का विषय सामने रहा हुआ पदार्थ हो होता है और एकत्व प्रत्यभिज्ञा उस पदार्थ की पूर्व दशा और उत्तर दशावर्ती एकत्व को विषय करता है । कोई-कोई साहय्य प्रत्यभिज्ञान को उपमान प्रमाण में अन्तहित करते हैं। सो ऐसा उनका कहना इसलिये उचित नहीं है कि उसके भीतर प्रत्यभिज्ञान के सभी गेंदों का समावेश नहीं होता है। यदि ऐसा मान भी लिया जाय तो एकत्व प्रत्यभिज्ञान का उसमें अन्तर्भाव कैसे किया जा सकता है ? अतः इसे स्वतन्त्र ही मानना चाहिये। जब दोनों वस्तुएँ समक्ष होती हैं और उनमें तुलना की जाती है तो ऐसे ज्ञान को भी परोक्ष ही माना गया है क्योंकि तुलना में एक दूसरे की स्मृति रूप विचारधारा काम करती है, अत: इसे प्रत्यभिज्ञान ही कहा गया है ॥ ६ ॥
सूत्र - त्रिकालति साध्य-साधनविषयक व्याप्ति ज्ञानं तर्कः ।। १० ।।
अर्थ --- त्रिकालवर्ती साध्य साधन के अविनाभाव सम्बन्ध को बताने वाला जो ज्ञान है उसका नाम तर्क है ।
व्याख्या - साधन के होने पर साध्य का होना अन्वय है और साध्य के न होने पर साधन का नहीं होना व्यतिरेक है। अग्नि का लिङ्ग धुंआ है । धुंआ को देखकर ही अग्नि का ज्ञान किया जाता है । अतः अग्नि के अस्तित्व का ज्ञान कराने में साधन धूम है और अग्नि साध्य है। इस तरह धूम का और अग्नि का जो सम्बन्ध है वही अन्वय है । इस अन्वय का ही दूसरा नाम अविनाभाव है। क्योंकि घूआ afia के बिना नहीं हो सकता है । होगा तो नियम से अग्नि के सदभाव में ही होगा। साध्य के अभाव में साधन का अभाव होना इसका नाम व्यतिरेक है। अग्नि के अभाव में धूम क्वचिदपि कदाचिदपि उपलब्ध नहीं होता है । रसोईघर आदि में हम प्रत्यक्ष से धूम और अग्नि को बार-बार देखकर यह नियम नहीं बना सकते हैं कि जहाँ-जहाँ धूम होगा यहां वहाँ अग्नि होगी। यह नियम बनाने का काम तर्क का है। यह तर्क प्रत्यक्ष, स्मृति और प्रत्यभिज्ञान की सहायता से उत्पन्न होता है । इसलिये यह उन तीनों में से किसी में भी अन्तर्जीन नहीं हो सकता है। तर्क के द्वारा निश्चित किये गये नियम के आधार पर अनुमान की उत्पत्ति होती है । अतः अनुमान में भी इसे शामिल नहीं कर सकते हैं । ॥ १० ॥
अनुमान का लक्षण :
सूत्र - साध्याविनामाविलिङ्गजं ज्ञानमनुमानम् ॥ ११ ॥
अर्थ-साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाले लिङ्ग से जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसका नाम अनुमान है।
व्याख्या - जिसे सिद्ध किया जाता है उसका नाम साध्य है और जिसके द्वारा सिद्ध किया जाता है वह साधन कहलाता है । जब हम पर्वत से अविच्छिन्न शाखा वाला धूम उठते हुए देखते हैं तो हम
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