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तेरापन्थी परपरा का न्याय ग्रन्थ 'भिक्षु न्याय कणिका' भी एक लघुकाय सुन्दर ग्रन्थ कहा जा सकता है।
न्याय रत्न
यह नया ग्रंथ नहीं है । न्यायरत्न पर जो टीका है, उसका नाम है— न्यायरत्नावली और इसी ग्रंथ पर आचार्य प्रवर घासीलालजी म. की विशालकाय टीका है - स्याद्वाद मार्तण्ड । अतः एक ही ग्रन्थ के तीन रूप हैं - मूल सूत्र, लघ्वी टीका और बृहती टीका । वस्तुतः यह वादिदेव सूरि का अनुकरण है । उनका मूल ग्रन्थ है, प्रमाणनपतत्त्वालोकालंकार सूत्र । उसकी लघ्वी टीका है, रत्नाव रावतारिका । बृहती टीका है, स्याद्वाद - रत्नाकर। इसी पद्धति को आचार्य श्री घासीलालजी म. ने अपनाया है । इस प्रयत्न में वे सफल भी हुए हैं ।
न्यायरत्नावली में न्यायरत्नसार से अधिक सामग्री प्रस्तुत की है । कहीं-कहीं पर प्राचीन पद्धति से अन्य सम्प्रदायों का खण्डन भी किया है, मगर सौम्य एवं संयत भाषा में । केवली कबलाहार को लेकर दिगम्बर सम्प्रदाय का खण्डन किया है । आचार्य ने कहा है- केवलज्ञान और कबलाहार में किसी भी प्रकार का विरोध नहीं है ।
ग्रन्थकार आचार्य ने दूसरा खण्डन किया है मूर्तिपूजक श्वेताम्बर सम्प्रदाय का | आचार्य ने कहा है - मुख पर मुखवस्त्रिका बाँधे बिना वायुकाय की यतना नहीं हो सकती । यतना के अभाव में संयम नहीं हो सकता है । संयम के बिना मोक्ष नहीं हो सकता । अतः सदोरक मुखवस्त्रिका को स्वीकार करो ।
तेरापन्थ सम्प्रदाय के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार की चर्चा अथवा आक्ष ेप नहीं उठाया है । अन्यथा, दया और दान को लेकर उनका भी खण्डन किया जा सकता था लेकिन आज के युग में ये तीनों ही प्रयत्न अन्यथा सिद्ध हो चुके हैं।
व त सेवा
श्रुत सेवा का अर्थ है- साहित्य सर्जना | स्थानकवासी संप्रदाय के आचार्यों में सर्वाधिक त सेवा - जैन धर्म दिवाकर आचार्य प्रवर पूज्य बासी लालजी महाराज ने की है। स्थानकवासी मान्य ३२ आगमों पर संस्कृत टीका, निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णि ग्रन्थ लिखकर उन्होंने कमाल कर दिया। फिर हिन्दी और गुजराती टीकाएँ भी की हैं। एक ही व्यक्ति ने अनेक आचार्यों का अनेक ग्रन्थकारों का काम कर दिखाया। साहित्य-सर्जना में वे एक प्रकार से सम्राट है, समर्थ हैं ।
उन्होंने की है। श्रावक धर्म पर उन्होंने गाथाबद्ध संस्कृत एवं प्राकृत ग्रन्थों की स्वतन्त्र रचना भी ग्रंथ की रचना की, उसी में साधु धर्म की भी रचना है। न्याय विषय पर न्याय रत्न की कृति प्रस्तुत है । है । फिर उस पर संस्कृत तथा हिन्दी टीका भी की अनेक संस्कृत एवं प्राकृत स्तोत्रों की रचना की । वर्धमान भक्तामर उनको एक अमर कृति है । प्राकृत व्याकरण और प्राकृत कोष भी उन्हों ने बनाया है । साहित्य की समस्त विधाओं पर उनकी कलम चली है । वस्तुतः आचार्य घासीलालजी म. इस बीसवीं शती के सर्वाधिक समर्थ साहित्यकार हैं । वे इस वर्तमान युग के आचार्य हेमबन्द्र कहे जा सकते हैं । स्थानकवासी समाज के लिए कामधेनु हैं, सुरतरु हैं और चिन्तामणि रत्न हैं । स्थानकवासी समाज को समग्र भाव से आचार्य श्री घासीलाल जी म. पर गौरव एवं गर्व होना चाहिए। यह समाज का महान् सद्भाग्य है ।
जैन भवन, लोहामंडी
आदरा
३०-६-१६८२
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- विजय मुनि शास्त्री साहित्यरत्न