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प्रमाता के स्वरूप का भी प्रतिपादन किया है। चारित्र से समस्त कर्म क्षय रूप मोक्ष प्राप्त होता मोक्ष क्या है ? उसे प्राप्त करने की योग्यता क्या हैं। वह अजर-अमर हो जाता है। है ? वाद कथा का स्वरूप और उसके भेदों का भी साधक को वाद, जल्प एवं वितण्डा में नहीं संक्षेप में कथन कर दिया गया है।
पड़ना चाहिए। कथा के दो भेद हैं-तत्वनिर्णय नय क्या है ? श्रतज्ञान द्वारा ज्ञात पदार्थ, पदार्थ तथा विजिगीषा । जय-पराजय की भावना को छोड़ का एक धम, अन्य धर्मे को गौण करके. जिस कर साधक को सदा वीतराग कथा में तल्लीन और अभिप्राय से ज्ञाता के विशेष भाव को जाना जाता एकाग्र होना चाहिए । है, उस अभिप्राय विशेष को नय कहते हैं। इसके न्यायरत्नसार जो विपरीत हो, उसको नयाभास कहा गया है।
आचार्य प्रवर जैन धर्म दिवाकर पूज्यश्री घासी नय के दो प्रकार है-ध्यासनय आर समास लालजी महाराज कृत न्यायरत्नसार ग्रन्थ जेन नय । व्यासनय के अनेक भेद-प्रभेद होते हैं । समास
__न्याय का एक सुन्दर, सरल और समीचीन ग्रंथ है, नय दो प्रकार का है-द्रध्याथिकनय और दूसरा
. जिसमें षट् अध्याय हैं, सूत्र संख्या २१७ है । अक्षर पर्यायाथिकनय । व्यास का अर्थ है-विस्तार । समास ,
___ कम और अर्थ गम्भीर है। सूत्रों की भाषा प्रांजल का अर्थ है-संक्षप। द्रव्य को मुख्य रूप से विषय
है, उसमें सहज प्रवाह है। न्यायशास्त्र के समस्त करने वाला द्रव्याथिक । पर्याय को मुख्य रूप से
पदार्थों का इसमें समावेश हो गया है। विषय करने वाला नय पर्यायाधिक होता है।
प्रमाण और प्रमेय मुख्य विषय हैं । प्रमाण का द्रव्याथिक नय के तीन भेद हैं-नेगम, संग्रह
लक्षण, प्रमाण की संख्या, प्रमाण का विषय और और व्यवहार । पर्यायाथिक नय के चार भेद हैं
अगाण का फल-इन समस्त विषयों का मनोग्राही ऋजुसूत्र, शब्द, समांभरूद और एवंभूत । इन सात
वर्णन आचार्यश्री ने किया है । प्रमाण विभाजन की नयों में पहले के चार नय पदार्थ का निरूपण करने
पद्धति तथा प्रमाण के भेद-प्रभेद की पद्धति जैन बाले हैं । मतः वे अर्थनय हैं । अन्तिम तीन नय
परम्परा एवं उसकी मान्यता के अनुकूल है। शब्द के वाच्य अर्थ को विषय करने वाले हैं। इस
प्राचीन आचार्यों ने जिस पद्धति का निर्माण किया कारण उन्हें शब्दनय कहते हैं। इन सात नयों में
था, वही पद्धति आचार्य प्रवर ने स्वीकार की है। पहले-पहले के नय अधिक-अधिक विषय बाले हैं, और पिछले-पिछले कम विषय वाले हैं।
प्रथम ग्रन्थ 'न्यायरत्नसार' में मूल सूत्र और
उनका अति संक्षिप्त एवं सरल अर्थ दिया गया है। ___ नय वाक्य भी अपने विषय में प्रवृत्ति करता
छात्र आसानी से सूत्रों के भाव को ग्रहण कर लेता हआ, विधि और निषेध की विवक्षा से सप्तभंगी है। जैसे ग्रन्थ के सूत्र सरल हैं, वैसे हो उनका अर्थ को प्राप्त होता है । विकलादेश नय वाक्य होता है। भी सरल एवं सबोध्य है। जैन न्याय का अभ्यास नय सप्तभंगी में 'स्यात् और एव' पद लगाया जाता करने वालों के लिए यह कृति अत्यन्त उपयोगी है। जैसे 'स्यात् अनित्य एवं घट: ।' नय का फल सिद्ध होगी। भी अज्ञान की निवृत्ति ही माना गया है।
स्थानकवासी परम्परा में, सूत्रात्मक न्याय का प्रमाता क्या है ? चेतन, कर्ता, भोक्ता, स्वदेह यह प्रथम ग्रन्थ है। दिगम्बर परम्परा के परीक्षा परिमाण और प्रतिशरीर भिन्न जो जीव है, वह मुख तथा श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के प्रमाणप्रमाता है । मोक्ष क्या है ? पुरुष शरीर अथवा स्त्री नयतत्वालोकालंकार से भी अधिक स्पष्ट, अधिक शरीर पाने वाले आत्मा को सम्यग्ज्ञान और सम्यक्- सरल और अधिक बुद्धिगम्य है--यह लघुकाय ग्रंथ ।
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