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न्यायरल्न : न्यायरलावली टीका : षष्ठम अध्याय, सूत्र ४
गत अन्य धर्मों का खण्डन करता है उनका निषेध करता है-वह उसका अभिप्राय नयाभास रूप कहा गया है, क्योंकि वह नयलक्षण से विहीन होता है अतः अन्यतीथिक जनों द्वारा जो एकान्तरूप से नित्य अनित्य आदि के व्यवस्थापक कथन किये गये हैं वे सब नयाभास की ही कोटि में आ जाते हैं क्योंकि इनके व्यवस्थापक वचनों में स्वाभिप्रेत सिद्धान्त के अतिरिक्त वस्तुगत अन्य धर्मों का अपलाप भरा रहता
सूत्र-संक्षेप विस्ताराभ्यामपि नयस्य व विध्यमुक्तम् ॥ ४॥ संस्कृत टीका-नेगमादि नयापेक्षया नयस्य सप्तविधत्वमुक्त्वापि पुनः प्रकारान्तरेण तत्र द्वविध्यं
। व्याससमासनयाभ्याम तत्र समासनयापेक्षया नयस्य व्याथिका पर्यायाधिको दो भेदोस्तः । ध्यासनयापेक्षया तस्य धानेकभेदाः । द्रव्यमेवार्थः प्रयोजनमस्येति द्रव्याथिकः । पर्याय एव प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिवाः । द्रधति अदुद्र वत् द्रोष्यति इतिद्रव्यम् । द्रव्यरूपोऽर्थोऽस्य विषयत्वेन वर्तते इति द्रव्याथिकः स विषयत्वेनास्यास्तीति पर्यायाथिकः । यथा सुवर्णस्य वलयकुण्डलादिरूपाः पर्याया अनेके भवन्ति तेषामुत्पत्तिविनाशयुक्तत्वात् तेषु च सर्वेषु वलयादिपर्याग्रेषु सुवर्णस्योपलभ्यमानत्वेन सुवर्ण द्रव्यमित्युच्यते तस्य सर्वेष्वपि वलयादि पर्यायेषु अनुवर्तमानत्वात् अतो द्रव्याथिकनयो भवति सामान्यांशगोचरो वस्तुमात्रस्य सामान्यविशेषात्मकत्वात् विशेषांशगोचरपच पर्यायाथिकनयो भवति सामान्यं द्विविधं पूर्वमेवोक्तं विशेषश्चापि प्रतिपर्यायानुयापि ऊर्यता सामान्य प्रतिव्यक्ति सदृश परिणामलक्षणं च तिर्यक् सामान्यम् । गुणपर्यायभेदाद् विशेषश्चापि विविधः कथितः क्रमभावी पर्यायः विशेषः शुक्लन ष्णत्वादिरूपोगुणः ॥ ४ ॥
अर्थ-संक्षेपनय और विस्तारनय के भेद से भी नय में द्विविधता कही गयी है ।
हिन्दी व्याख्या-नेगमादि नयों की अपेक्षा यद्यपि नय सात विभागों में विभक्त किये गये हैं फिर भी प्रकारान्तर से नय को दो विभागों में और विभक्त किया गया है । वे दो विभाग उसके व्यासनय और समासनय हैं । समासनय की अपेक्षा नय के द्रव्याथिकनय और पर्यायाथिकनय ऐसे दो भेद हैं और व्यासनय की अपेक्षा नयके अनेक भेद हैं । इस कथन का तात्पर्य यही है कि यदि समास संक्षेप रूप से नय के भेद किये जावें तो वे द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे दो होते हैं और विस्तार से यदि भेद किये जावें तो वे अनेक होते हैं। जिस नय का विषय केवल द्रव्य ही होता है अर्थात् जो द्रव्य को ही मुख्य रूप से विषय करता है वह द्रव्याथिकनय है और जो केवल पर्याय को ही विषय करता है वह पर्यायाथिकनय है। जो उन-उन पर्यायों को प्राप्त करता रहता है भूतकाल में जिसने पर्यायों को प्राप्त किया है तथा भविष्यत् काल में भी जो पर्यायों को प्राप्त करने वाला है उसका नाम द्रव्य है अर्थात् त्रिकाल में भी जो पर्यायों से रिक्त नहीं होता है हर समय जिसमें पर्यायों की माला उत्पन्न और विलीन होती रहती है वही द्रव्य है । यह द्रव्य ही जिस नय का विषय है वही नय द्रव्याथिक नय है । द्रव्याथिक नय में द्रव्य की ही मुख्यता रहती है, पर्याय की नहीं । जो उत्पाद और व्ययरूप परिणति को धारण करता रहता है यह पर्याय है । यह पर्याय रूप अर्थ जिमका विषय होता है वह पर्यायाथिक नय है। जमे सुवर्ण की कटक-कुण्डल आदि रूप अवस्थाएं अनेक होती हैं और वे उत्पन्न और ध्वस्त होती रहती हैं परन्तु इन सबमें सुवर्ण द्रव्य का अन्वय चलता रहता है । इसलिए सुवर्ण को द्रव्य के स्थान पर समझना चाहिए और इसी द्रव्य को द्रव्याथिक नय विषय करता है । द्रव्य का नाम ही सामान्यांश है । वस्तु सामान्य विशेष धर्मात्मक है । इसमें सामान्यांश को जानने वाला यह द्रध्याथिकनय है और पर्यायांश को जानने वाला पर्यायाथिकनय हैं । सामान्य तिर्यक् सामान्य और विशेष भी पर्याय और गुण की अपेक्षा लेकर दो प्रकार का कहा गया है । जो अपने व्यक्तियों में सदृश परिणमनरूप होता है वह तिर्यक सामान्य है प्रमशः होने वाला पर्याय