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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका: षष्ठम अध्याय, सूत्र १-२-३
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यह नहीं है कि वह वस्तुगत शेष धर्मों को तिरस्कृत करता हो । लोक में भी तो यही देखा जाता है कि जिसका विवाह होता है उसी की प्रशंसा के गीत गाये जाते हैं। इससे यह तात्पर्य तो निकलता नहीं है कि दूसरों का तिरस्कार किया गया है। इसी प्रकार से वक्ता या प्रतिवक्ता जिस विवक्षित धर्म से विशिष्ट करके वस्तु का कथन करता है वह उसी के गीत गाता है। इससे उसकी दृष्टि वस्तुगत शेष धर्मों को तिरस्कार करने की ओर नहीं होती है और जहाँ ऐसी दृष्टि है वहीं वह दृष्टि सुनयरूप नहीं है किन्तु दुरूप ही है ।
प्रश्न - नय प्रमाणरूप है या अप्रमाणरूप है ?
उत्तर - नय न प्रमाणरूप है और न अप्रमाणरूप है किन्तु वह प्रमाण का एकदेशरूप है । जिस प्रकार समुद्र की तरह बिन्दु न पूर्ण समुद्र रूप होती है और न असमुद्ररूप होती है किन्तु समुद्र की एकदेश रूप होती है ।
प्रश्न – आगे इस ग्रन्थ में नय सात हैं ऐसा कहा जायेगा - सो यह कहना "वरतुओं में अनन्तधर्म हैं अतएव उनके प्रतिपादक वचनरूप नय भी अनन्त हैं" इस कथन के अनुसार विरुद्ध पड़ता है ।
उत्तर - बात तो ऐसी ही है कि अनन्तधर्म हैं और अनन्त ही नय हैं पर सात जो नय कहे गये हैं वे ही उन सब नयों के संग्राहक हो जाते हैं इसलिए कोई विरोध नहीं आता है। इस सम्बन्ध में स्पष्टीकरण नैगमादि नथों के स्वरूप प्रतिपादन करते समय किया जायेगा ।। १ ।।
सूत्र - नैगम संग्रहव्यवहारजु' सूत्र शब्दसमभिरूदेवंभूताभेदात्स सप्तविधः ॥ २ ॥
संस्कृत टीका - अनन्ताशात्मके वस्तुन्ये कांश विषयको नयो भवतीति तस्य सामान्यलक्षणमभिधायाधुना सूत्रकारस्तद्विकल्पान प्रतिपादयति नैगमः, संग्रहो, व्यवहारः, ऋजुसूत्रम् शब्दः, समभिरूढः एवंभूतश्मानि तद्विकल्पानां नामानि एतेषां स्वरूपं सदृष्टान्तं सूत्रकारः स्वयमेवाग्रेऽभिधास्यामि नोच्यतेऽतोऽत्र मया ।। २ ।।
अर्थ - नैगमनय, संग्रनय, व्यवहारनय, ऋजुसूत्रनय, शब्दनय, समभिरूडनय और एवंभूतनयये सात नय हैं ॥ २ ॥
हिन्दी व्याख्या - नय अनन्तशात्मक वस्तु में से उसके एक अंश को विषय करने वाला होता है यह नय का सामान्य लक्षण कहा है। इनके भेदों के नाम सूत्रोक्त हैं । ग्रन्थकार स्वयं ही दृष्टान्त सहित इनके लक्षणों का कथन आगे करने वाले हैं अतः इनका स्वरूप हम यहाँ नहीं कह रहे हैं ॥ २ ॥
सूत्र- स्वेप्सितधर्मादितर धर्मापलापी तस्याभासः ॥ ३ ॥
संस्कृत टोका - प्रतिपत्तुर्थोऽभिप्रायः स्वाभिप्रेतादेशात् वस्तुगतेरांशान पलपति - निषेधतिऽसोऽभि प्रायस्तस्य नयाभास उच्यते । नयलक्षणरहित्वात्तदभिप्रायस्य अतोऽन्यतीर्थिकानामेकान्तनित्यानित्यत्वादि व्यवस्थापकं सर्वमपि वाक्यं मयाभासकोटिभागच्छति स्वाभिमतांशातिरिक्तान्यवस्तुगत वंशातामपलापकस्वात् ॥ ३ ॥
हिन्दी व्याख्या -नय का जैसा लक्षण ऊपर प्रकट किया गया है उसके अनुरूप न होकर प्रतिपत्ता का या वक्ता का जो अभिप्राय अपने इच्छित धर्म का ही पोषण करता हुआ मंडन करता हुआ वस्तु
१ "रादेव सत्स्यादिति विद्यार्थी भीयेन दुर्नीनिय प्रमाणे : " - स्याद्वावमंजयम् ।