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भ्यागरत्न : न्याय रत्नावली टीका : पंचम अध्याय, सूत्र ३०-३१
यहाँ पर साध्य नित्य है । इस नित्य के साथ कलकत्व हेतु की व्याप्ति नहीं है किन्तु नित्य के विपरीत . अनित्य के ही साथ कृतकस्व की व्याप्ति है, विरुद्ध हेत्वाभास सामान्य रूप से एक ही प्रकार वाला है ।
पक्ष सपक्ष में रहते हुए भी विपक्ष में जिस हेतु का अस्तित्व पाया जाता है ऐसा हेतु अनैकान्तिक हेत्वाभास रूप कहा गया है। जैसे—यदि कोई ऐसा कहता है कि "यह पर्वत धूमवाला है, क्योंकि यह अग्निवाला है ?" "यहां पर सामान और नि। यह अग्निरूप हेतु पर्वत रूप पक्ष में भी रहता है और सपक्ष जो रसोईघर है उसमें भी रहता है तथा विपक्ष जो धूम रहित अयोगोलक है उसमें भी रहता है । इसी प्रकार "शब्द अनित्य है क्योंकि वह प्रमेय है" यहाँ प्रमेयत्व हेतु शब्द में और घटादि रूप सपक्ष में रहता हुआ भी विपक्ष जो गगनादिक हैं उनमें भी रहता है । अनः जो भी हेतु इस तरह का होता है वह अनंकान्तिक हेत्वाभास रूप कहा गया है। इस अनेकान्तिक हेत्वाभास के निश्चिन विपक्ष वृत्ति और संदिग्ध विपक्षवृत्ति ऐसे दो भेद माने गये हैं। अनेकान्तिक के स्वरूप को प्रकट करने के लिए जो उदाहरण प्रकट किया गया है वह निश्चित विपक्षवृत्ति अनेकान्तिक हेत्वाभास का है। तथाजब कोई ऐसा कहता है कि "जिनेन्द्र सर्वज्ञ नहीं हैं क्योंकि वे वक्ता हैं" तो यहाँ पर जोर हेतु है वह पक्ष सपक्ष में रहता हुआ विपक्ष-सर्वज्ञ-से अपनी व्यावृत्ति कराने में संदिग्धता वाला है । क्योंकि वह सर्वज्ञ भी रहा आवे और वक्ता भी रहा आवे । सर्वज्ञत्व और वक्तृत्व का आपस में कोई विरोध नहीं है। सामान्यतो हेत्वाभासान् निदिश्य विशेषतस्तान् लक्षयन्ति सूत्रकाराः
सूत्र-निश्चितान्यथानुपपत्त्यभावोऽसिद्धोऽनेकविधः ॥३०॥
संस्कृत टीका-सूत्रे नामतो निर्दिष्टस्यासिद्ध हेत्वाभासस्य स्वरूपं प्रकाशयन्नाह सूत्रकारो निश्चितान्यथेत्यादि
__ यस्य हेतोः स्व साध्येन सार्धमन्यथानुपपत्ति रूप स्वरूपस्य अभावो मानेन मिश्चितो वर्तते सोऽसिद्ध हेत्वाभासः, सद्ध तुस्तु निश्चितान्यथानुपपत्तिक एव, शब्दः परिणामी चाक्षुषत्वात् इत्यादौ चाक्षषत्वरूपो हेतुः शब्दात्म पक्षे स्वरूपत एवासिद्धो वर्तते शब्दे श्रावणत्वस्यैव सत्त्वे न चाक्षुषत्वाभावात् । तस्मात् चाक्षुषत्वरूपा सिद्धात्मक हेल्वाभासात् समुत्पद्यमानं शब्दः परिणामी" इत्येव मनुमानत्वेनाभिमतं ज्ञानमनुमानाभासत्वमवगन्तव्यम्, स चायमसिद्धो हेत्वाभासो विविधात्मकः पूर्व टीकाकारेण प्रतिपादितः स्वरूपासिद्धादिभेदात् ।
हिन्दी व्याख्या-अपने साध्य के साथ जिस हेतु का अविनाभाव सम्बन्ध किसी भी प्रमाण से निश्चित नहीं होता है ऐसा वह हेतु असिद्ध हेत्वाभास रूप कहा जाता है । जो सद्ध'तु होता है वह अपने साध्य के साथ निश्चित बविनाभाव सम्बन्ध वाला होता है । जब कोई ऐसा कहता है-माब्द परिणामी है क्योंकि बह चक्षु इन्द्रिय द्वारा ग्रहण होता है, तो यहाँ पर जब शब्द में चाक्षुषत्व हेतु स्वभावतः रहता ही नहीं है तब वह वहाँ परिणामित्व साध्य का साधक कैसे हो सकता है। इसलिए इस असिद्ध हेतु से-- असिद्ध हेत्वाभास से-जायमान जो "शब्द परिणामी है" इत्याकारक अनुमानात्मक ज्ञान है वह अनूमानाभास रूप है। यह असिद्ध हेत्वाभास अनेक प्रकार का है जैसा कि इस सुत्र से पहिले के सूत्र में टीकाकार ने प्रकट किया है।
सूत्र-साध्याभावेनैव निश्चित नियमको विरुद्धः ।।३१।।
संस्कृत टीफा-यस्य हेतोः गियमः-अन्यथानुपपत्तिरूपः सम्बन्धः-साध्याऽभावेनव सार्ध निश्चितो भवति स हेतुविरुद्धः, यथा शब्दो नित्यः कृतकवादित्यत्र यत्र-यत्र कृतकत्वं तत्र-तत्र नित्यत्वमेषा