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न्यायरन्न : न्याय रत्नावली टीका : पंचम अध्याय, सूत्र २६
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त्वादित्यादावपि पक्ष सपक्ष विपक्ष वृत्तित्वेनाऽनैकान्ति कताऽवगन्तव्या, जिनोऽसर्वज्ञो ववतृत्वादित्यादी संदिग्ध विपक्षवृत्तिता-वक्तृत्वमपि अस्तु सर्वज्ञत्वमप्यस्तु, अविरोधात् ॥२६॥
अर्थ-~-असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक के भेद से हेत्वाभास तीन प्रकार के कहे गये हैं ॥२६॥
हिन्दी व्याख्या-यहाँ अनुमानाभास के प्रसङ्ग को लेकर पक्षाभास का कथन करके अब सूत्रकार हेत्नाभास का कथन कर रहे हैं । वे असिद्ध हेत्वाभास आदि के भेद से तीन प्रकार के है । हेतु का लक्षण साध्याक्निाभावी कहा गया है । इस हेतु के लक्षण से जो रहित होते हैं और हेतु के जैसे जो प्रतीत होते हैं वे ही हेत्वाभास कहे जाते हैं । असिद्धता हेतु में तभी आती है कि जन उसकी अन्यथानुपपत्ति या तथोपत्ति निश्चित नहीं होती है । यह असिद्ध हेत्वाभास आश्रयासिद्ध, अन्यतरासिद्ध उभयासिद्ध
और संदिग्ध आदि के भेद से अनेक प्रकार का कहा गया है । जब कोई ऐसा कहता है कि-"शब्दोऽनित्य चाक्षुषत्वात्" शब्द चक्षु इन्द्रिय का विषय होने से अनित्य है-- यहाँ पर शब्द पक्ष है अनित्य साध्य है और चाक्षुषत्व हेतु है । तो उसका यह कथन इसलिये ठीक नहीं माना जाता है कि यहां पर हेतु स्वरूपासिद्ध है। क्योंकि हेतू का आश्रयभूत जो शब्द है उसमें चाक्षुषत्व हेतु स्वरूपतः नहीं रहता है । शब्द में जो श्रोत्रेन्द्रिय ग्राह्यता हो रहती है, इस तरह अन्यथानुपपत्ति रूप अपने लक्षण के विरह होने से ही यह हेतु स्वरूपासिद्ध हो गया है।
प्रश्न यह हेतु अपने पक्ष में नहीं रहता है इस कारण यह स्वरूपासिद्ध है ऐसा क्यों नहीं माना जाना चाहिये ?
उत्तर-हेतु में जो स्वसाध्य गमकता आती है वह अन्यथाऽनुपपत्ति के ही बल पर आती है, पक्षधर्मता के बल से नहीं, अतः पक्षधर्मता हेतु में हो या न हो यदि उसमें अन्यथाऽनुपपत्तिरूपता है तो वह नियमतः अपने साध्य का गमक होता है। प्रकृत में हेतु और साध्य में अन्यथानुपपत्ति का विरह है इसलिए हेतु में स्वरूपासिद्धता कही गई है । जब सांख्य के प्रति ऐसा कोई कहता है कि शब्द परिणामीअनित्य है क्योंकि यह किया जाता है, उत्पन्न होता है । तो यहां पर कृतकत्व यह हेतु अन्यतरासिद्ध है। क्योंकि सांख्य सिद्धान्त में सत्कार्यवादी होने के कारण किसी की भी उत्पत्ति नहीं मानी गई है । उत्पत्ति और विनाश सत्कार्यवाद में है ही नहीं, आविर्भाव और तिरोभाव है। इसलिए सांख्य को अपेक्षा यह कृतकत्व हेतु अन्यतरासिद्ध है।
जब कोई ऐसा कहता है कि शब्द अनित्य है क्योंकि वह स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा ग्राह्य होता है तो यहाँ पर यह स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा ग्राह्यता प्राब्द में न वादी को संमत है और न प्रतिबादी को संमत है। इस तरह यह हेतु उभयासिद्ध है । संदिग्धासिद्ध हेतु वहाँ होता है जहाँ हेतु के स्वरूप में सन्देह होता है, जैसे—कोई मुग्ध बुद्धि वाला व्यक्ति जब शक मूर्धा में उठती हुई वाष्प को निहारता है तो कहता है यहाँ पर अग्नि है क्योंकि इसमें धूम निकल रहा है, तब उसकी इस बात को सुनकर उसे गुरुजन समझाते हैं कि बेटा! यह धूम नहीं है यह तो वाष्प है, वाष्प के होने पर अग्नि नहीं होती है । अब वह जब कभी पर्वत में उड़ते हुए धूम को देखता है तो वह उसके स्वरूप में सन्देह करने लगता है कि कहीं यह वाष्प तो नहीं है । इस तरह वाष्प और धूम के स्वरूप के निश्चय हुए बिना ही यदि वह ऐसा कहता है यह प्रदेश अग्नि वाला है क्योंकि यह धूम वाला है। तो यहाँ पर धूमहेतु उसको अपेक्षा संदिग्धासिद्ध है, क्योंकि उसके स्वरूप में उसे सन्देह है । इसी प्रकार से और भी इस हेत्वाभास के भेद हैं ।
साध्य से विपरीत के साथ अर्थात् साध्याभाव के साथ जिसकी व्याप्ति होती है ऐसा हेतु विरुद्ध हेत्वाभास कहा जाता है । जैसे-जब कोई कहता है-शध्द नित्य है क्योंकि वह किया हुआ होता है।