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भ्यासरत्म :न्या परत्नावली टीका : पंचम अध्याय, सूब २४-२५-२६-२७
अब आगे के सूत्रों द्वारा इसी विषय का स्पष्टीकरण किया जा रहा है-- सूत्र-बरिनुष्णो द्रव्यत्वाज्जलवदिति ॥ २४ ।।
संस्कृत टीका-अत्र वह्नौ-पक्षे साध्यमनुष्णत्वं स्पर्शनेन्द्रियजन्य प्रत्यक्षेण बाधित मतोऽयं वह्निरूपः पक्षः प्रत्यक्ष निराकृतसाध्य धर्म विशेषणवत्वात् पक्षाभासः ।
अर्थ-जिस पक्ष का साध्य प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित होता है ऐसा वह पक्ष प्रत्यक्ष निराकृत साध्य धर्म विशेषण बाला हो जाने के कारण पक्षाभास की गिनती में आ जाता है । जव कोई ऐसा कहता है कि अपिन अनुषण है गोंकि लद जल की तरह दव्य रूप है । यहाँ पर अग्नि पक्ष है और अनुष्णत्व साधा है । यह साध्य अग्नि में उष्णत्वाबग्राहक स्पार्शन प्रत्यक्ष से बाधित सिद्ध होता है क्योंकि उसके द्वारा उसमें उष्णत्व का ही ग्रहण होता है। इस तरह पक्ष का साध्य यहाँ प्रत्यक्ष से बाधित हो जाने के कारण पक्ष को प्रत्यक्ष बाधित पक्षाभास कहा गया है।
सत्र नास्ति सर्वज्ञः वक्तत्वात् रथ्यापूरुषवदिति ।। २५ ॥
संस्कृत टीका-अत्र सर्वज्ञः पक्ष नास्तित्वं तत्र साध्यम् । परन्तु "अस्ति मर्वज्ञः सुनिश्चितासंभवद्वाधक प्रमाणत्वान्" अनेनानुमानेन सर्वज्ञस्य सत्तायाः माधितत्वात् तदमत्ता निरस्ता । अतोनुमान बाधित साध्यत्वात् अनुमान निराकृत साध्यधर्म विशेषणोज्य पक्षाभासः ।
हिन्दो ध्याख्या-जिस पक्ष का साध्य अनुमान प्रमाण से बाधित होता है वह अनुमान निराकृत साध्यधर्म विशेषण पक्षाभारा है उसी का यहां दृष्टान्त द्वारा स्पष्टीकरण किया गया है। जब कोई ऐसा कहता है कि सर्वज्ञ नहीं है तो 'सर्वज्ञ" पक्ष है और "नहीं है" साध्य है । पर यह माध्य "अस्ति सर्वज्ञः सुनिश्चितासंभवबाबक प्रमाणत्वात्" अपने पक्ष में इस अनुमान द्वारा बाधित हो जाता है, इसलिए यह पक्ष अनुमान बाधित पक्षाभास कहा गया है ।। २५ ॥
सूत्र-धर्मः प्रेत्य दुःखदो लीवाधिष्ठितत्वादधर्मवत् ।। २६ ।।
संस्कृत टीका-आगमबाधित साध्यधर्म विशेषणो यथा-प्रेत्य परलोके धर्मः दुःख प्रदाता भवति जीवाधिष्ठितत्वात अधर्मवत । अत्र-धर्मः पक्षः प्रेत्य दुःखदः साध्यम । परन्तु आगमे धर्मस्य उभयलोक सुखदातृत्वं प्रतिपादितम् । अतो धर्मस्य प्रेत्य दुःखप्रदत्व प्रतिपादन पक्षाभासात्मकं ज्ञयम् ।। २६ ।।
हिन्दी व्याख्या-आगमबाधित पक्षाभास वहीं पर होता है कि जहाँ पर आगम से निराकृत साध्य हो जैसे जीवाधिष्ठित होने से धर्म परलोक में दुःखदाता है ऐसे कथन में धर्म पक्ष है और दुःखदत्व उसका साध्य है । यह साध्य धर्म में रहता नहीं है क्योंकि आगम में धर्म को उभयलोक सुखदायी कहा गया है ।। २६ ।।
सुत्र-दयाऽनायिंजनाचरित्वात्पापवत् ॥ २७ ।।
संस्कृत टीका-लोकनिराकत साध्य धर्म विशेषण पक्षाभास इत्थम् पापवत् दया अनार्या-आचरितुमयोग्या अत्र "दया" पक्षः अनार्येति साध्यम् । परन्तु लोकन्यवहारे दया पापवत् अनाचरणीया मैव प्रतिपादिता किन्तु आचरणयोग्यैव कथिता अतो दयायामनार्यत्व कथनम् पक्षाभासरूपमेव ।। २७ ।।
हिन्दी व्याख्या-लोक निराकृत साध्य धर्म विशेषण वाला पक्षाभास इस प्रकार से है-जैसे कोई यह कहे कि दया नहीं करनी चाहिए क्योंकि वह पाप की तरह आर्य पुरुषों द्वारा अनाचरणीय है । सो इम प्रकार का धन लोक व्यवहार से बाधित है क्योंकि लोक व्यवहार में दया को अनाचरणीय नहीं कहा
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