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न्यायरल : न्यायरत्नावली टीका : पंचम अध्याय, सूत्र २२
अंगं यदि स्वलक्षण न्यूनं भवति तदा-तज्जायमानं ज्ञानमनुमानाभासरूपं भवति, तथाहि-अप्रतीतानिराकृताभीप्सिते साध्यं भवतीति साध्यलक्षणमुक्तस तत्र यदि प्रतीत निराकृतानभीप्सित साध्यधर्मविशिष्टः पक्षो भवति तदा स पक्षवदभासमानत्वेन पक्षाभास संज्ञया व्यवाहियते । आदि शब्देनात्र हेत्वाभास-दृष्टान्ताभासोपनयाभास निगमनाभासानां संग्रहोऽवगन्तव्यः, तत्र हेतुलक्षणरिक्तो हेतुवदवभासते यः स हेत्वाभासः 'साध्याविनाभाबित्वेन निश्चितो हेतु भवति' इत्युक्त लक्षण विरहात् हेतीत दाभासता दृष्टान्तलक्षणविहीनो यो दृष्टान्तबदाभासते स दृष्टान्ताभासः साध्यसाधन व्याप्ति प्रतिपत्तेरास्पदं दृष्टान्त इति सम्यग्दृष्टान्तस्य लक्षणमस्ति । अस्य लक्षणस्याभावात् दृष्टान्ते तदाभासता पक्षे हेतोरुपसंहार उपनय इति । उपनयस्य लक्षणम् अस्माल्लक्षणाद विपरीत लक्षणोपेतत्वेनोपनयाभासत्वम् । पक्षे साध्यस्योपसंहारो निगमनमिति निगतनस्य लक्षणम् । अस्माल्लक्षणा परीत्ये निगमनाभासत्वम् । एतेभ्यः पक्षाभासादिभ्यो जायमाने ज्ञानमनुमानाभासमच्यते । ।। २१ ॥
अर्थ-पक्षाभास आदि से जायमान जो ज्ञान है वह अनुमानाभास है ।
हिन्दी अनुवाद- तर्कामास का निरूपण करके अब सूत्रकार अनुमानाभास का निरूपण इस सूत्र द्वारा करते हैं । इसके द्वारा उन्होंने यह समझाया है कि पक्ष, हेतु, दृष्टान्त, उपनय और निगमन ये अनुमान के अङ्ग हैं। इन पांचों अवयवों में से किसी एक अग के लक्षण के मिथ्या होने पर अनुमानाभास हो जाता है । जैसे-साध्य का लक्षण जो अप्रतीत, अनिराकृत और अभीप्सित होता है वह साध्य है ऐसा कहा गया है। इनमें से यदि प्रतीतनिराकृत और अनभीप्सित साध्यरूप धर्म से विशिष्ट पक्ष है तो वह वास्तविक पक्ष नहीं है। किन्तु पक्ष के सरीखा प्रतीत होने के कारण वह पक्षाभास है । क्योंकि साध्यधर्म से विशिष्ट धर्मी का नाम पक्ष कहा गया है । जब पक्ष साध्याभास से युक्त होता है तो वह भी पक्षाभास की कोटि में ही परिगणित होता है । सूत्र में जो आदि शब्द प्रयुक्त हुआ है उससे हेत्वाभास, दृष्टान्ताभास, उपनयाभास और निगमनाभास का ग्रहण किया गया है । इनमें जो हेतु अपने लक्षण से हीन होता है और हेतु के जैसा प्रतीत होता है वह हेत्वाभास है । हेतु का लक्षण जो अपने साध्य के साथ जो अविनाभाव रूप से निश्चित होता है वह हेतु है ऐसा कहा गया है । इस हेतु लक्षण के अभाव से ही हेतु में हेत्याभासता आती है। दृष्टान्त का लक्षण
विनाभाव की प्रतिपति का स्थानभूत जो होता है वह दृष्टान्त है, ऐसा कहा गया है। इस लक्षण से विहीन होने पर ही दृष्टान्त में दृष्टान्ताभासता आती है। पक्ष में हेतु को दुहराने का नाम उपनय है । इसकी विपरीतता में उपनयाभासता उपनय में आ जाती है । तथा प्रतिज्ञा का दुहराना इसका नाम निगमन है । इसके विपरीत प्रयोग में निगमनाभासता निगमन में आती है। इस तरह से इन पक्षाभास आदिकों से जायमान अनुमान में अनुमनाभासता का प्रतिपादन किया गया है। इसी विषय का स्पष्टीकरण सूत्रकार स्वयं आगे करने वाले हैं अतः यहाँ पर इसका केवल नाम निर्देश हो टीकाकार ने किया है।
सूत्र-प्रतीतबाधितानभिमत साध्यधर्म विशेषण भेदात् विविधः पक्षाभासः ।। २२ ।।
संस्कृत टीका-अनुमानाभास निरूप्य तन्मूलभूत पक्षाभास स्वरूपं निरूपयितुम् 'प्रतीत बाधिते' त्यादि सूत्रमाह सूत्रकारः-एवं च यः पक्षवदबभासते स पक्षाभासः स च त्रिविधः, तथाहि-प्रतीत साध्यधर्म विशेषणः, बाधित साध्यधर्म विशेषणः, अनभिमत साध्य धर्म विशेषणश्च । तत्र प्रतीतः प्रसिद्धः साध्यरूप धर्मो विशेषणं यस्य स प्रतीत साध्यधर्म विशेषणः-यथा आईतान्प्रति 'अस्तिजीवः' इत्येवं कश्चित्पुरुषो यदा वधारणार्थकवकारं विना पक्ष प्रयोगं करोति तदा तस्मिन् प्रयोगे साध्यस्य प्रतीतत्वात् पक्षः प्रतीत साध्यधर्म विशेषणत्वेन पक्षाभासतामङ्गीकरोति तेन पक्षाभासेन समुत्थमनुमान ज्ञानमपि अनुमानाभासरूपं भवति । जैनमते वस्तुमात्रस्यैवाऽनेकान्तात्मकत्वे न स्वीकृतत्वात् जीवास्तित्व साधनं सिद्ध साधनरूपमेव । एवमेव