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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : पंचम अध्याय, सूत्र २०-२१
विशिष्टे वस्तुनि "तदेवेदं वस्तु" इत्येवं वक्तव्ये तद्विहाय तेन सदृशमिदमित्यादिरूपं यज्ज्ञानमुत्पद्यतेतदपि प्रत्यभिज्ञानवदेवाभासमानत्वात् प्रत्यभिज्ञानाभासमवगन्तव्यम् ॥ १६ ।।
अर्थ-तुल्य वस्तु में "यह इसके समान है" ऐसा ज्ञान न होकर जो ऐसा ज्ञान होता है कि यह वही है वह प्रत्यभिज्ञानाभास है-मूठा प्रत्यभिज्ञान है ।
हिन्दी अनुवाद--यह पहले प्रकट किया जा चुका है कि अनुभव और स्मृति से जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसका नाम प्रत्यभिज्ञान है और यह सादृश्य प्रत्यभिज्ञान एवं एकत्व प्रत्यभिज्ञान आदि के भेद से अनेक प्रकार का कहा गया है । जहाँ सादृश्य की प्रतीति होने में एकत्व की प्रतीति हो वह एकत्व प्रत्यभिज्ञानाभास है और जहाँ एकत्व की प्रतीति होने में सादृश्य की प्रतीति हो वह सादृश्य प्रत्यभिज्ञानाभास है ।। १६ ।।
सूत्र-असत्यामपि व्याप्ती तद्नाहकस्ताभासः ॥ २० ।।
संस्कृत टीका-व्याप्तिज्ञाने तर्क इति तर्कप्रमाणस्य लक्षणं पूर्वमभिहितम्-एतल्लक्षणरहितत्वादेव सांभासत्वं भवति । एवं च अविनारूप व्याप्तिरहिते वस्तुनि व्याप्तिग्राहकः संस्कार विशेषस्ताभास इति फलितम् । यथा स श्याभो मित्रातनयत्वात् । इममित्रातनमानो याममा माटन मह यद्यपि व्याप्तिर्नास्ति तथापि यत्र-यत्र मित्रातनयत्वं तत्र-तत्र श्यामत्वमित्येवं रूपेण असद्व्याप्तिग्राहकतया ताभासत्वं निगदितम् ॥ २० ॥
अर्थ-व्याप्ति न होने पर भी व्याप्ति का ग्रहण करने वाला तर्क तर्काभास कहा गया है ।। ।।
हिन्दो च्याख्या-व्याप्ति का जो ग्राहक होता है वह तर्क है, ऐसा तर्क का लक्षण कहा गया है। परन्तु जहाँ पर यह लक्षण घटित नहीं होता है-अर्थात् व्याप्तिशून्य में जो व्याप्ति ग्रहण करता है ऐसा जो संस्कार विशेष है वह तर्काभास है । सतकं व्याप्तिविशिष्ट वस्तु में यदि किसी कारण से व्यभिचार की शङ्का हो जाती है तो वह उसका निवर्तक होता है । जैसे—यह पर्वत चह्निवाला है क्योंकि धूमवाला है । अब यदि किसी को ऐसी आशङ्का हो जाती है कि यह धूम वह्नि का व्यभिचारी है या नहीं ? तो शङ्का की निवृत्ति के लिए तर्क कहता है कि यदि धूम वह्नि का व्यभिचारी होता-वह्नि के बिना होता तो वह वह्निजन्य नहीं होता तथा धूप के लिए जो अग्नि जलाने में प्रवृत्ति देखी जाती है वह न देखी जाती अतः बलि के अभाव में धूम त्रिकाल में भी नहीं हो सकता है, अतः जितना भी कहीं धूम होगा वह् अग्निजन्मा ही होगा, अनग्निजन्मा नहीं होगा । इस तरह से शंका की निवृत्ति करता हुआ वह धूम की व्याप्ति वह्नि के साथ निश्चित रूप से ग्रहण करा देता है परन्तु जो ताभास होता है वह तर्क के जैसा प्रतीत
और व्याप्तिशून्य साध्य के साथ साधन की व्याप्ति का आभास प्रकट करता है। जैसे-किसी ने हा-मैत्रा का पूत्र होने से गर्भस्थ मैत्रा का शिशु श्यामवर्ण का होगा, क्योंकि इसके और भी वर्तमान जो पुत्र हैं, वे सब श्याम वर्ण के हैं अतः यह भी मैत्रा का पुत्र है अतः यह भी श्यामवर्ण का ही होगा। यद्यपि यहाँ पर मंत्रातनयत्व हेतु की व्याप्ति श्यामत्व के साथ नहीं हैं क्योंकि वह सोपाधिक है फिर भी ग्रह उसके साथ व्याप्ति वाला जैसा प्रतिभासित होता है । अतः अव्याप्त के साथ व्याप्तियुक्त प्रतीत होने के कारण यह तर्काभास ऊहाभास कहा गया है। क्योंकि ऐसी व्याप्ति नहीं बन सकती है कि 'थावान् मंत्रातनयः स सर्वोऽपि श्यामः' जितने भी मैत्रातनय होते हैं वे सब काले होते हैं ।।२०।।
सूत्र-पक्षाभासादिजं ज्ञानमनुमानाभासम् ॥ २१ ।।
संस्कृत टीका-ताभासस्य निरूपणं कृत्वाऽथानुमानाभासं निरूपयितुम् “पक्षाभासादिजम्" इत्यादि सूत्रमाह-तत्र पक्ष हेतु दृष्टान्तोपनय निगमन रूपाः पञ्चावयवा अनुमानाङ्गत्वेनोक्तास्तेष्वेकमपि