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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : चतुर्थ अध्याय, सूत्र २६ अभेद मानकर प्रधान रूप से उस स्सु को प्रकाशित करता है। इसी प्रकार क्रमशः इन दोनों धर्मों की मुस्यता से शेष अनन्त धर्मों को समेटकर इन सब धमों की एक पिण्डरूप उस वस्तु को प्रकाशित करता है। इसी प्रकार का कथन शेष भंगों के द्वारा अनन्त धर्मों का अभेदादि करके वह उनकी पिण्ड रूप उस वस्तु को प्रकाशित करता है, ऐसा जान लेना चाहिये । इस तरह से इन सात भंगों के उस प्रमाणभंगी में बनने में कोई बाधा नहीं आती है ।
प्रश्न-आपके इस कथन से तो यह प्रमाणवाक्य एक प्रकार से भानुमती का पिटारा ही साबित होता है । जिस प्रकार भानुमती के पिटारे में सब प्रकार की चीजें संगृहीत रहती हैं इसी प्रकार से इस पिटारे में भी अस्तित्व नास्तित्वादि समस्त धर्म संगृहीत होकर रहते हैं परन्तु उस भानुमती के पिटारे की कोई कीमत नहीं होती है क्योंकि वहाँ व्यवस्थित कोई चीज नहीं रहती है । इसी प्रकार से आपका यह प्रमाण वाक्य भी अनुपादेयता की श्रेणि में रखा जाने तो कोई अनौचित्य नहीं है।
उत्तर--यह अनौचित्य की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है क्योंकि यहाँ पर प्रत्येक धर्म अपनेअपने स्वभाव से मुव्यवस्थित ही रहते हैं, अव्यवस्थित नहीं । अतः यह विलक्षण जाति का ही ज्ञानियों द्वारा आविष्कृत हुआ एक पिटारा है, अबुद्ध भानुमती का पिटारा नहीं है । इस तरह अवक्तव्य भंग के बनने में कोई बाधा नहीं आती है।
नय सप्तभंगी जब अभेदवृत्ति और अभेद का उपचार नहीं आश्रित होता है तब बनती है । नय विकलादेशक इसी कारण से माना गया है कि वह वस्तु का उसमें के किसी एक धर्म को मुख्य करके उसी का विधि निषेध द्वारा प्रतिपादन करता है । इस एक धर्म के विधि-निषेध के विचार से सात भंग हो जाते हैं । विकलादेश में द्रव्याथिकनय की गौणता और पर्यायाथिकलय की प्रधानता होती है।
सूत्र-द्रव्यपर्यायापितेन कालादिभिरभेदेनाभेदोपचारेण च सकलवस्तुनः प्रतिपादकत्वं सकलादेशत्वम् ॥२६॥
संस्कृत टीका---उत्तानार्थमिदं सूत्रम् सकलस्येति सपर्यायस्येति यावत् ।
हिन्दी बधालया-विशेषार्थ—सकलादेश का क्या अर्थ है यही बात इस सूत्र द्वारा प्रकट की गई है । इस सम्बन्ध में जो भी स्पष्टीकरण होना चाहिये वह सब २४वें सूत्र में किया जा चुका है। अनन्तधर्म यहाँ सकल शब्द से लिये गये हैं क्योंकि गुण और पर्यायवाला' जो होता है, वही द्रव्य है-ऐसा द्रव्य का लक्षण कहा गया है । सहभावी गुण होते हैं और कमभावी पर्यायें होती हैं । गुण और पर्याय का ग्रहण पर्यायाथिक नय से होता है इसलिये नयों के दो भेद किये गये हैं-एक द्रव्यायिकनय और दूसरा पर्यायायिक नय । गुणों को ग्रहण करने वाला स्वतन्त्र गुणार्थिकनय नहीं माना गया है। क्योंकि गुणों को ग्रहण करने वाला पर्यायाथिकनय ही माना गया है । इस तरह द्रव्य में सहभावी गुण और क्रमभावी पर्यायें रहती हैं।
१. मन्वेवं धान भावनाशेष धर्मात्मकस्य वस्तुनः प्रकाश प्रमाणवाश्यं कथमुपपद्यत येत सकलादेश: प्रमाणाधीन: स्यादितिचेकालादिभिरभेदेनाभेदोपचारेण च द्रव्य पर्याय तयापितेन सकलस्य वस्तुनः कथनादिति वूमः ।
—'अष्ट सहली" पृ० १३८ । २, गुण पर्वयवद्रव्यम् ।
--तस्वार्थः अध्याय का । न्या० टी०१५