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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : चतुर्थ अध्याय, सूत्र २५ सकता है । वह भी अपने ही एक अर्थ का बोधक होता है । इस तरह द्रव्याथिक नय की प्रधानता से और पर्यायाथिक मय की गौणता से प्रमाणवाक्य सकलादेशक सकल घर्मों की पिण्डरूप बनी हुई एक ही वस्तु का कथक कहा गया है। अनेक अर्थ का युगपत् बोधक नहीं कहा गया है । सकल धर्मों में अभेद वृत्ति पर्यायाथिक मय की गौणता एवं द्रव्याषिक नय की प्रधानता करने में ही आती है । तथा-जिस समय पर्यायाथिक नय की गौणता होती है, उस समय सकल धर्मों में भिन्नता होने पर भी अभेद का आरोप किया जाता है । क्योंकि काल आदि की अपेक्षा उनमें अभेद वृत्ति नहीं हो सकती है।
प्रश्न--जब प्रमाण वाक्य एक साथ अनेक धर्मों को जाननेपूर्वक उनका एक धर्म के साथ-साथ ही प्रकाशन कर देता है तो फिर "स्यादवक्तव्य" ऐसा जो चतुर्थ भंग माना गया है वह अब नहीं बन सकता है।
उत्तर-यह बात तो जब अवक्तव्य भंग का प्रकरण लिखा गया है वहीं पर कह दी गई है कि युगपत् अनेकार्थ को प्रकाशित करने की किसी भी शब्द मे शक्ति नहीं है परन्तु यहाँ पर जो मान्यता प्रकट की गई है वह भी अनन्तधर्मात्मक एक ही वस्तु को प्रमाणवाक्य प्रकाशित करता है, यही कही गई है। एक ही धर्म के साथ जो अनन्त धर्मों को अभेद कहा गया है वह अभेदवृत्ति और अभेद के आरोप से ही कहा गया है । परन्तु फिर भी जब प्रमाणवाक्य उनका प्रकाशन करेगा तब तो वह उनका प्रकाशन क्रमशः ही करेगा, युगपत् नहीं । अतः प्रमाणवाक्य में भी ऐमी शक्ति नहीं है जो एक ही साथ अनन्त धर्मों का प्रकाशन कर सके। वह तो केवल अनन्तधर्मों से विशिष्ट वस्तु को जानता है।
प्रश्न-तो फिर प्रमाण का यह लक्षण सुसंगत कैसे हो सकता है कि वह सकलादेशक है ? क्योंकि समस्त का कथन करने वाला ही सकलादेशक होता है ।
उत्तर-लक्षण की सुसंगति में कोई बाधा नहीं आती है। क्योंकि वह एक ही अस्तित्वादि धर्म के साथ-साथ उस वस्तुगत अनन्त धर्मों का अभेद मानकर या उनको उसके साथ अभेद का उपचार कर उनके पिण्डरूप हुई उस एक वस्तु को उनसे युक्त हुई जानता है और उसी का कथन करता है । सकल धर्मों का एक साथ कथन करने वाला वाक्य प्रमाणवाक्य है ऐसा सकलादेशक का अर्थ नहीं है किन्तु सकल धर्मों से युक्त उस वस्तु को मानकर-जानकर उसका कथन करना इसमें कोई बाधा नहीं आती है । यही सकलादेशक का अर्थ है इस तरह वस्तुगत अनेक धर्मों का वह कथन नहीं करता है। बह कभी अस्तित्वमुब से अनन्त धर्मों को समेट कर उसे प्रकाशित करता है तो कभी निषेधमुख से अनेक धर्मों को समेटकर उसी वस्तु को प्रकाशित करता है-इत्यादि ।
प्रश्न–तो फिर इस प्रकार के कथन से तो वस्तु के अनन्त धर्मों की अनन्त ही प्रमाण भंगियाँ बनेंगी, प्रमाण सप्तभंगी कैसे बन सकेगी ?
उत्तर-प्रमाण सप्तभंगी क्यों नहीं बन सकेगी? इसके निष्पन्न होने में बाधा ही क्या है । क्योंकि कभी वह विधिमुख से अनन्त धर्मों का अस्तित्व के साथ कालादिकों के द्वारा अभेद मानकर उस अनन्त धर्मात्मक वस्तु का प्रधानतया कथन करता है और कभी वह निषेधमुख से अनन्तधर्मों का उसके साथ