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जानना-यही प्रतिभात विषय का अव्यभिचारित्व सूत्र में परिच्छेद १, सूत्र १८ में कहते हैं, कि प्रमेय भाव है । यदि ज्ञान से जाना गया पदार्थ उत्तरकाल से अव्यभिचारि होना, प्रमाण का प्रमाणत्व है। में बैसा उपलब्ध नहीं होता है, तो उस पदार्थ को इरासे विपरीत अप्रमाणत्व है । प्रमाणत्व और जानने वाला ज्ञान प्रमाणभूत नहीं माना जा अप्रमाणत्व का भेद बाह्य पदार्थों की अपेक्षा से है। सकता । यही प्रमाण की अप्रमाणता होती है। क्योंकि प्रत्येक ज्ञान अपने स्वरूप को वास्तविक ही
न्यायशास्त्र अथवा प्रमाण-शास्त्र में इस विषय जानता है । अतः स्वरूप की अपेक्षा सभी ज्ञान प्रमाण पर बहुत विवाद है। प्रमाण के प्रमाणत्व को स्वतः ही होते हैं। बाद्य पदार्थों की अपेक्षा कोई ज्ञान मानने वाले परतः मानने वाले और स्वतः तथा प्रमाण है, तो कोई शान अप्रमाण है। परत: मानने वाले- कम से कम तीन पक्ष तो हैं आचार्य हेमचन्द्र सूरि प्रमाण-मीमांसा के अध्याय ही। मीमांसक रखाः प्रमाण है . नचायिक , आहकि १, सूत्र में कहते हैं, कि प्रामाण्य का परतः प्रमाणवादी है । जैन दार्शनिक उभय प्रमाण- निश्वय स्वतः और परतः होता है। इसका अधिक वादी हैं।
स्पष्टीकरण आचार्य ने अपनी वृत्ति में किया है । इस __ 'न्यायरत्नसार' के आचार्य का कथन है, कि सम्बन्ध में जितने भी मत-मतान्तर हैं, सबका प्रमाण में प्रमाणत्व पर से ही आता है । लेकिन उस खुलासा कर दिया है। प्रमाणता का निचय अभ्यास दशा में स्वतः और अनभ्यास दशा में परत होता है । जैसे जिस तालाब
द्वितीय अध्याय में प्रतिदिन रमान और जलाहरण नि.या जाता है, वहाँ के जल के अस्तित्व में जरा भी सन्देह नहीं ।
इसमें १८ सूत्र हैं। इसमें जैन दर्शन मान्य
प्रमाणों के भेद-प्रभेद का कथन किया है। प्रमाणों होता । अतः वहाँ स्वतः ही निश्चय हो जाता है। म इसी का नाम न्याय की भाषा में स्वतः प्रामाण्य को ।
का विभाजन जैनों ने अपनी अलग पद्धति से किया ज्ञप्ति है। अपरिचित स्थान में तो परतः निश्चय है। स्थानांग सूत्र में प्रमाण के दो भेद भी हैं, चार होता है। बक पक्ति देखने से अथवा किसी विश्वस्त
भेद भी हैं । अनुयोगद्वार सूत्र में प्रमाण के सीधे चार ध्यक्ति के कथन से । यही परतःप्रामाण्य है।
भेद उपलब्ध हैं--प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और
शब्द । न्याय सूत्रों में भी ये ही चार भेद हैं। नन्दी परीक्षामुख के समुद्दे श १, सूत्र १३ में कहा कि
सूत्र का वर्गीकरण तो अलग पद्धति का है। पहले प्रमाण का माण्य स्वतः तथा परतः होता है।
पाँच ज्ञानों का वर्णन किया गया, फिर उन्हें दो किन्तु इस अति संक्षिप्त से बात स्पष्ट नहीं होती।
प्रमाणों में विभक्त किया गया---प्रत्यक्ष और परोक्ष। प्रमेयरत्न-मालाकार ने अपनी वृत्ति में माणिक्य
परश्न के दो भेद-मतिज्ञान और श्रतज्ञान । परोक्ष नन्दी के भाव को अत्यन्त सुंदरता से प्रस्तुत किया है।
। इसलिए हैं, कि इनमें इन्द्रिय और मन की सहायता भारतीय का न्यायशास्त्र मन्थन कर डाला ।वृत्ति में न
होती है । प्रत्यक्ष के दो भेद हैं-विकाल और सकल । कहा है, कि मीमांसक प्रमाण के प्रमाणत्व को स्वतः ।
सकल केवलज्ञान है, विफल के दो भेद हैं -अवधि और अप्रमाणत्व को परतः मानते हैं । सांख्य विद्वान ।
न और मनःपर्याय । ये तीनों ज्ञान सीधे आत्मा से होते प्रमाणत्व को परतः और अप्रमाणल्य को स्वतः ।
हैं। इनमें इन्द्रिय और मन की सहायता की अपेक्षा कहते हैं । नैयायिक दोनों को परतः मानते हैं । जैन
नहीं रहती । अतः ये प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। दार्शनिक कथंचित् स्वतः और कथंचित् परतः स्वीकार करते हैं।
तत्त्वार्थ सूत्र में, वाचक उमास्वाति ने पांच आचार्य थादिदेव सूरि प्रमाण-नय-तत्वालोक ज्ञानों को दो प्रमाणों में विभक्त किया है-प्रत्यक्ष
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