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प्रमेय तत्व भिन्न-भिन्न है। अमेय के अनुसार हो प्रमाण का लक्षण किया जाता है ।
१ सूत्र में प्रमाण का लक्षण किया है - स्त्र और पर का निश्चय करने वाला तथा अवाधित ज्ञान ही प्रमाण है । स्व का अर्थ हैज्ञान और पर का अर्थ है- ज्ञेय पदार्थ, व्यवसाथि का अर्थ है- निश्चय कराने वाला, पर वह ज्ञान बाध रहित हो । ज्ञान ही प्रमाण हो सकता है | न्याय वैशेषिक मत में font प्रमाण कहा है। लेकिन वह जड़ होने से प्रमाण नहीं हो सकता। स्व और पर का निर्णय ज्ञान ही कर सकता है । अतः ज्ञान ही प्रमाण हो सकता है । प्रमाण रूप में स्वीकृत ज्ञान समारोप का विरोधी होता है ।
बौद्ध निर्विकल्पक ज्ञान को ही प्रमाण मानते हैं। जैन दर्शन में इसको दर्शनोपयोग कहा है। दर्शन अनाकार होने से सामान्य को विषय करता है. विशेष को नहीं । जैन दर्शन में वस्तु सामान्यविशेषक होती है । अतः सविकल्पक ज्ञान ही प्रमाण हो सकता है निर्विकल्पक नहीं । सविकल्पक ज्ञान से ही समारोप का निषेध हो सकता है ।
समारोप क्या है ? जो पदार्थ जैसा है, उसका उस रूप में ज्ञान न होना । उसके तीन भेद हैं-संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय ये तीनों विकल्पात्मक ज्ञान हैं। फिर इनको प्रमाण क्यों नहीं मानते ? संशय आदि ज्ञान के दोष हैं । अतः ये प्रमाण नहीं हो सकते। जिस ज्ञान में ये दोष हों, वह ज्ञान प्रमाण कोटि में नहीं आ सकता । संशय और अनव्यवसाय से किसी पदार्थ का निश्चय नहीं हो पाता । विपर्यय से विपरीत निर्णय होता है । अतः ये प्रमाण नहीं है । लक्षण में अवाधित पद विपर्यय के निषेध के लिए ही दिया गया है। क्योंकि विपय से विपरीत निर्णय होता है । समारोप ज्ञानों में स्व निर्णय तो है, पर निर्णय सही नहीं होता अतः समारोप प्रमाण कोटि में नहीं आता ।
अध्याय १, सूत्र १०, में बताया है पर क्या है ? ज्ञान के स्वरूप से भिन्न जो ज्ञ ेय रूप अर्थ है, वह पर है। ज्ञान में प्रमाणता ज्ञेय रूप बाह्य पदार्थ के जानने से ही आती है । केवल अपने आपको जानने से नहीं । ज्ञ ेय के सम्बन्ध में भारतीय दार्शनिकों में में एक मत नहीं है। शून्यवादी बौद्ध बाह्य पदार्थ को मिथ्या मानते हैं। उनके विचार में ज्ञेय की सत्ता ही नहीं है । शून्यवादी बौद्ध आन्तरिक पदार्थ आत्मा तथा ज्ञान आदि को भी मिथ्या कहते है | वेदान्त ब्रह्म के अतिरिक्त सबको असत् कहता है। विज्ञानवादी बौद्ध विज्ञान को सत् स्वीकार करते
अन्य सब असत् कोटि में आता है । ज्ञ ेय भिन होने से प्रमाण भी भिन्न-भिन्न हैं, उनकी संख्या भी एक नहीं हो सकती । अतः ज्ञान से ही स्व और पर का निश्चय होता है | ज्ञान ही प्रमाण है । संनिकर्ष, अन्तःकरण वृत्ति और कारक आदि प्रमाण नहीं बन सकते। आचार्य हेमचन्द्र सम्यग् अर्थ निर्णय को प्रमाण कहते हैं | माणक्यनन्दी स्व और अपूर्व अयं के निर्णय को प्रमाण मानते है । न्याय रत्नसार में प्रमाण के लक्षण में वादिदेव सुरि का अनुतरण किया गया है । शब्द साम्य भी दोनों में एकसा है ।
जैन दर्शन ज्ञान को स्व पर प्रकाशक ही मानता है | जैसे दीपक अपना और पर का भी वोध कराता है। दूसरे दार्शनिक ज्ञान को पर प्रकाशक हो कहते हैं। मीमांसक कहते हैं कि ज्ञान पर को ही जानता है. रव को वह नहीं जानता । नट कितना भी चतुर क्यों न हो, वह अपने कन्धे पर कैसे चढ़ सकता है । नैयायिक भी ज्ञान को पर प्रकाशक कहते हैं। वादिदेवसूरि हेमचन्द्र सूरि और न्यायरत्नसार के प्रणेता आचार्य घासीलालजी ज्ञान को उभयमुखी मानते हैं। वह दोनों को जानता है ।
अध्याय १, सूत्र १२ में कहा गया है, कि प्रमाण का प्रसाद क्या है ? ज्ञान को प्रामाण्य कब प्राप्त होता है ? प्रमेय पदार्थ जैसा है, उसे उसी रूप में
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