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न्यायरत्न : म्यायरत्नावली टीका : चतुर्थ अध्याय, सूत्र 8
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हिन्दी व्याख्या -- अन्तर्वर्त्ती एवं बहिर्वर्ती जितने भी जीवात्मक और अजीवात्मक पदार्थ हैं, वे सब अनन्तः श्रर्मात्मक स्वरूप वाले हैं, एकान्ततः एक धर्मात्मक स्वरूप वाले नहीं हैं। क्योंकि एकान्ततः एक धर्मात्मकता ही यदि उनका स्वरूप माना जावेगा तो उनमें सत्व के अभाव से वस्तुस्व का ही अभाव हो जायगा ।
प्रश्न – एकान्ततः एक धर्मात्मकता मानने पर वस्तु में वस्तुता का अभाव कैसे आ सकता है ? हम देखते हैं कि एकान्ततः एक धर्मात्मकता होने से ही वस्तु के द्वारा लोकव्यवहार सघता है और इसी कारण उसमें वस्तुता आती है। वस्तुता का मतलब है अर्थक्रियाकारित्व | यदि घट को अनेक धर्मात्मक माना जावे, तो उसके द्वारा अनेक धर्म जन्य अर्थक्रिया होनी चाहिये परन्तु ऐसा नहीं होता है । घट से तो घटजन्य ही अर्थक्रिया होती देखी जाती है, पटजन्य अर्थ क्रिया नहीं ।
सर - ऐसा नहीं है । हमारी स्थूल ज्ञान दृष्टि से घटगत अनेक धर्म साक्षात् जाने नहीं जाते हैं किन्तु अनुमेय होते हैं | घट जिस प्रकार स्वद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा घटत्व धर्मयुक्त है इसी तरह वह परद्रव्यादि चतुष्टय को अपेक्षा घटत्व धर्मयुक्त नहीं भी है। यदि ऐसा न माना जावे, तो वस्तु व्यवस्था में अस्त-व्यस्तता आ जावेगी । घट पट भी हो जायेगा । फिर अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव का कोई अस्तित्व ही नहीं रहेगा । इस स्थिति में " प्रेरितोदधि खादति किमुष्ट्र नाभिधावति" दही खाओ ऐसा कहने पर वह ऊँट को खाने के लिये क्यों नहीं लपकेगा ? अवश्य ही लपकेगा। क्योंकि दही और उष्ट्र में परस्पर में कोई अभाव अन्तर तो रहेगा नहीं । तथा एक धर्मात्मक वस्तु में वस्तुता ही नहीं आती है । वह तो अनेक धर्मात्मक वस्तु में ही आती है । और इन अनेक धर्मों की सिद्धि वस्तु में "अर्पिता पित सिद्ध ेः " के कथनानुसार होती है । इस सम्बन्ध में विशेष कथन सप्तभङ्गी के स्वरूप प्रतिपादन करते समय किया जावेगा । घट में जलधारण ज्ञेयापन, नयापन, पुरानापन, कच्चापन, पक्कापन, मोटापन, चौड़ापन, कम्बुग्रीवापन आदि अनेकधर्मात्मकता होने पर भी जो पटजन्य अर्थक्रियाकारिता उसमें वर्तमान में नहीं देखी जाती हैं उसका कारण उस समय उसमें पटधर्मविशिष्टता की अनभिव्यक्ति है | घट अनेक धर्म विशिष्ट है। इसका मतलब यही है, कि वह घटादि अनेक धर्मविशिष्ट होने की योग्यता वाला है। इस तरह त्रिकालगत अनन्तधर्मविशिष्टता उसमें नयी विवक्षा से साधित होने के कारण प्रत्येक पदार्थ अनन्तधर्मो का एक पिण्ड कहा गया है। इसी का नाम वस्तुता है । और वह वस्तुता परिणामिनित्यता के साथ सम्बन्धित है । एकान्ततः किसी भी एक धर्म के साथ सम्बन्धित नहीं है । ऐसा ही आत प्रवचन में वस्तु का स्वरूप कहा गया है। इसी अभिप्राय को हृदयङ्गम करके टीकाकार ने यहाँ “तदात्मकतब वस्तुता" ऐसा पाठ कहा है ।
पदार्थों के धर्मों का प्रतिपादन शब्द द्वारा होता है-और प्रत्येक पदार्थ अनेकधर्मात्मिक है । दृष्टान्त के लिये दीपक को ले लीजिये – दीपक एक ही क्षण में प्रकाश करता है, वर्तिका का दाह करता है, तेल का शोषण करता है, अन्धकार का विनाश करता है, कज्जल को छोड़ता है। आदि-आदि कार्य करता है । सप्तभंग पदार्थगत एक धर्मं को लेकर बनते हैं । ये भङ्ग सात ही होते हैं। कमती-बढ़ती नहीं
१. अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वमतोऽन्यथा सत्त्वमपपादम् ।
२. तत्त्वार्थ सूत्र पञ्चमोऽध्यायः ।
-स्यादादमञ्जार्याम् ।