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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली दीका : चतुर्थ अध्याय, सूत्र ८
हिन्दी व्याख्या-यह बात पहले प्रकट की जा चुकी है, कि शब्द अपनी अर्धप्रकाशनरूप स्वाभाविक शक्ति से युक्त है। चाहे वह पदार्थ यथार्थ हो या अयथार्थ हो परन्तु जब तक उसे सङ्केत का सहारा नहीं मिलता है.-तब तक वह अपने वाच्यार्थ का बोध नहीं कराता है। जिस प्रकार दीप घट-पटादि रूप संनिहित इष्टानिष्ट पदार्थ को प्रकाशित करने की शक्ति स्वाभाविक है। परन्तु प्रदीप से प्रकाश्य पदार्थ यदि भीत आदि के व्यवधान से युक्त है, तो बह दीपक उस व्यवहित पदार्थ को प्रकाशित नहीं करता है। अतः दीपक से प्रकाशित होने में जिस प्रकार व्यवधानाभाव उसे सहकारी है उमी प्रकार से अपने बाच्यार्थ का बोध कराने की स्वाभाविक शक्तिशाली शब्द भी है । परन्तु शब्द अपने वाच्यार्थ का बोध तभी कराता है श्रोता को कि जब वह श्रोता "इस शब्द का यह अर्थ होता है, इस शब्द का यह अर्थ होता है।" इस प्रकार के स मान सहित हो। यदि वह इस प्रकार के संकेत ज्ञान से विहीन है, तो वह थ यमाण शब्द उस श्रोता को अपने वाच्यार्थ का बोध नहीं करा सकता है । अतः पदार्थ को प्रकाशित करने में जैसे प्रदीप आवरण के अभाव रूप सहकारी की अपेक्षावाला होता है उसी प्रकार शब्द भी अपने वाच्यार्थ का श्रोता को बोध कराने में संकेत ज्ञान की सहायता की अपेक्षा वाला होता है। इतना होने पर भी जायमान बोध में जो प्रमाणता और अप्रमाणता आती है उसका कारण वक्ता के भीतर के गुण और दोष हैं। यदि वक्ता में सम्यग्दर्शिल आदि गुण हैं, तो वक्ता के शब्द से जायमान श्रोता को अर्थ बोध यथार्थ होगा और इमी से उसमें प्रमाणता मानी जावेगी। और यदि वक्ता के अन्दर दोष हैं, तो उस वक्ता के द्वारा कहे गये शब्द से श्रोता को जायमान अर्थ बोध यथार्थ नहीं होगा और इसी से उसमें अप्रमाणता आवेगी। अर्थ बोध में प्रमाणता और अप्रमाणता स्वाभाविक नहीं होती है किन्तु बह वक्ता के भीतर रहे हए गुण और दोष के आधीन होती है। यही कारण है कि जिससे आप्त और विप्रतारक पुरुष में भिन्नता आ जाती है। नहीं तो आप्त की और विप्रतारक की भिन्नता ही नहीं बन सकती।
प्रश्न -जबकि शब्द में अपने वाच्यार्थ को प्रतिपादन करने की शक्ति स्वभावतः रही हुई है, ऐसा आप मानते हैं तो फिर संकेत से सहवात होकर वह अपने वाच्यार्थ को प्रकट करता है-यह आपका कथन उसकी स्वाभाविक शक्ति का हनन करने वाला क्यों नहीं माना जायेगा ?
उत्तर-ऐसा कथन उसकी स्वाभाविक शक्ति का हनन करने वाला इसलिये नहीं माना जावेगा कि इस प्रकार के कथन से उसकी स्वाभाविक शक्ति के ऊपर कोई आंच नहीं आती है। स्वाभाविक शक्ति के रहने पर भी उसकी अभिव्यक्ति तो होनी ही चाहिये। क्योंकि अकेली शक्ति काम नहीं किया करती है सहकारी कारणों से उसकी अभिव्यक्ति होती है और तब जाकर वह अपना कार्य करती है।
प्रश्न-इसे आप उदाहरण द्वारा स्पष्ट करें, तो वहुत उत्तम होगा। क्योंकि "दृष्टान्तेन जायते स्फुटा मतिः” इस उक्ति के अनुसार दृष्टान्त द्वारा आपका कथन हृदयस्पर्शी बन जावेगा ।
___ उसर-तो इस विषय में दृष्टान्त सुनो-देखो, बालक जय माता के पेट से उत्पन्न होता है, तब कहो उसमें चालक को उत्पन्न करने की सविन है या नहीं ? यदि है तो फिर उससे सन्तानोत्पत्ति क्यों नहीं होती ? होनी चाहिये । यदि इस पर ऐसा कहा जावे, कि शक्ति तो है, पर अभी वह मुप्तावस्था में है, समयानुसार जब व्यक्त होगी तो उसके द्वारा संतानोत्पत्ति रूप कार्य होने लगेगा। तो