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न्यायरल : न्यायरत्नावली टीका : चतुर्थ अध्याय, सूत्र के उत्पन्न करने में 'अ' का अ और विसर्ग ये दो वर्ण ही कारण होते हैं । ये दोनों वर्ण ही आपस में एक दूसरे की इस बोध को उत्पन्न करने में सहायता सापेक्ष हैं। ऐसा नहीं है कि विसर्ग की सहायता बिना "अ" और अ की सहायता बिना विसर्ग इस प्रकार के बोध को-बासुदेव रूप अर्थ के ज्ञान को उत्पन्न करने वाले हों । "अः" यह वर्ण रूप शब्द नहीं है, किन्तु पद रूप शब्द है क्योंकि सुबन्त और तिडन्त शब्द की पद ना होती कही गई है । "ar." में अ और विसर्ग ऐसे दो वर्ण हैं। और वों के समुदाय का नाम ही पद कहा गया है। पद अपने पदार्थ बोध में जैसा अपने भीतर के वर्गों की सहायता सापेक्ष होता है वैसा यह उसके उत्पन्न करने में अन्य पदान्तरवर्ती वर्गों की अपेक्षा नहीं रखता है । "कः" यह पद है और इसमें क् अ और बिसर्ग ऐसे ये तीन वर्ण है । "रमा" यह पद है। इसमें र अम् और आकार ऐसे चार वर्ण हैं, इसलिये ये “कः, रमा" पद हैं ।
इसी प्रकार का जो पदों का समूह अपने पदार्थ बोध कराने में अन्य वाक्यान्तरवर्ती पदों की अपेक्षा विना का होता है वह वाक्य रूप शब्द है।
जैसे "गौरस्ति'-गाय है "नीलः घटोऽस्ति नीला घट है। इस तरह के अपने-अपने वाक्यार्थ बोध कराने में अपने-अपने भीतर रहे हुए, पदों की ही अपेक्षा वाले ये वाक्य हैं। अन्य वाक्यान्तरवर्ती पदों की अपेक्षा वाले नहीं हैं ।। ७ ॥
सूत्र-निरावरणप्रदीपवत्स्वार्थप्रकाशनं शब्दे सङ्केताधीनमपि, प्रमाणेतरता वक्तृगुणदोप निश्रा ।।
संस्कृत टीका-पूर्व सङ्केत महकारेण शब्दस्य म्वाभाविक शक्तितोऽर्थबोधजनकत्वमुक्त-सम्प्रति तथाविधशब्दादुरपद्यमानस्य बोधस्य प्रमाणेतरता पुरुषगत गुणदोषाधीना भवति । इतितावद्विचार्यतेयथा प्रदीपः प्रज्वलन् संनिहितं सर्वमेवेष्टानिष्ट पदार्थ प्रकाशयति तथैव शब्दोऽपि बत्रा प्रयुज्यमानः श्रोतुः अवणपथमवतीर्णः सन् स्वार्थं यथार्थमयथार्थ वा बोधयति इति शब्दस्य स्वार्थ प्रकाशकत्वं स्वाभाविक वत्तते । परन्तु प्रकाशमानोऽपि प्रदीपो यथा कुड्यादिना व्यवहितं वस्तुजातं न प्रकाशयितुं पारयति तत्र तस्य सम्बन्ध विच्छेदात् एवमेवास्य शब्दस्यास्मिन्नर्थ सङ्केतो वत्तते इत्येवं सङ्केत ज्ञानाभाबे शब्दः स्वार्थ बोध जनन शक्तिशालित्वेऽपि स्वार्थ बोधयितुं न पारयति । विद्यमानाया अपि स्वाभाविक शक्त रनुद्धतत्वादत एव प्रदीपस्यार्थ प्रकाशने कुड्यादिना व्यवधानाभारः सहकारिकारणम् एवमेव शब्दस्यापि स्वार्थबोधने सङ्केतज्ञानं सहकारि कारणं बोध्यम् । एव च सत्यपि शब्दादुत्पद्यमानस्य अर्थबोधस्य क्वचिद् यथार्थत्वं क्वचिच्चायथार्थत्वं यदनुभूयते तत् वक्तुगत गुण दोषाधीनम् । वक्त : प्रतिपादकस्य पुरुषस्य ये गुणाः सम्यग्दशित्यादयः, ये च दोषाः असभ्यग्दर्शित्वादयो भवन्ति तदधीनमेब-तदपेक्षमेव भवतीति भावः, अतएव यत्रबोधे यथार्थत्वं तत्र प्रमाणता, यत्रचायथार्थत्वं तत्राप्रमाणता | नार्थबोधे स्वाभाविक यथार्थत्वमयथार्थत्वं वा। यक्त गुण दोषाश्रयत्वात्तस्य, आप्त विप्रतारक पुरुषयोरम्मादेव भेदाच्द्र । अन्यथा तयोर्व्यवस्थानोपपद्येत।
. सूत्रार्थ-जिस प्रकार भीत आदि के व्यवधान से बिहीन अर्थ को-इष्टानिष्ट घटपटादि को प्रदीप प्रकाशित करता है। उसी प्रकार से स्वार्थ प्रकाशन की स्वाभाविक शक्ति से युक्त हुआ शब्द भी संकेत की सहायता से अर्थ का प्रकाशन करता है—ज्ञान करता है। परन्तु उस अर्थज्ञान में प्रमाणता और अप्रमाणता वक्ता के गुण और दोषों को लेकर आती है।