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मायरत्न : न्यायररनावली टीका : तृतीय अध्याय, सूत्र ४०
|६७ हो जावेगा। इस तरह हम देखते हैं, कि उपलब्धि और अनुपलब्धि-विधिरूप और प्रतिषेध रूप हेतु मूल रूप से द्विविधता वाला होता हआ भी अपने उसरभेदों के अनुसार अनेक प्रकार का हो जाता है, तथा विधिरूप उपलब्धि हेतु और प्रतिषेधरूप अनुपलब्धि हेतु विधिसाधक और निषेधमाधक होते हैं। इसी बात का स्पष्टीकरण अब किया जाता है ॥ ३६ ।।
सूत्र--वनिः परिणतिमान् प्रयत्नानन्तरीयकत्वादिति प्रथमा ॥ ४० ॥
संस्कृत टीका-पूर्व साध्याबिरुद्धोपलब्धेविध्यनुमितौ षड्विधत्वमुक्त तत्र तस्याः प्रत्येक भेदं सोदाहरणं लक्षयितु प्रथमोपात्तायाः साध्याविरुद्ध व्याप्योपलब्धेः स्वरूपं प्रकाश्यते-ध्वनिः परिणतिमानित्यादिना, ध्वनिरत्र पक्षः परिणतिमत्त्वं साध्यम् प्रयत्नानन्तरीयकत्वं साधनम् । इदं साधनमत्र स्वसाध्यन परिणतिमत्त्वेन साकं कथंचित् तादात्म्य सम्बन्धेन स्थितं सदेव व्याप्यरूपं जातम् व्याप्यपदेन प्रकृते स्वसाध्य स्वभावस्य ग्रहणात् साध्याविनाभावरूप व्याप्यस्व मात्रमत्र न गृहीतं तथा प परिणतिमत्वेन साध्येन सह कथंचित्तादात्म्येन स्थितस्य प्रयत्नानन्तरीयकत्वस्य स्वभावस्यैवात्र व्याप्यात्वेन विवक्षणात् अस्याः साध्याविरुद्ध व्याप्योपलब्ध मान्तरं स्वभावोपलब्धिरित्यपि उक्त भवति । तेनात्र व्याप्यपदेन धूमादि हेतोः कार्यात्मकस्य बहिरूप माध्य व्याप्यत्वेऽपि ग्रहणं न भवति वह्नि-धूमयोः परस्पर भिन्नतया तादात्म्याभावेन घुमस्य बह्नि स्वभावत्वा संभवादिति । एव विधस्य व्याप्यस्य साध्येनाविरुद्धस्य हेतो रूपलब्धिः साधर्येण वैधम्र्येण च भवतीति विभावनीयम् ।
हिन्दी व्याख्या--शब्द परिणति वाला है--अनित्य है। क्योंकि वह प्रयत्न से उत्पन्न होता है। जो प्रयत्न से उत्पन्न होता है वह अनित्य होता है जैसे कलश आदि । अथवा जो अनित्य नहीं होता बह प्रयत्न से उत्पन्न नहीं होता है । जैसे बन्ध्या पुत्र । शब्द प्रयत्न से उत्पन्न होता है । अतः वह अनित्य है। इस प्रकार से यह अन्वय व्यतिरेक द्वारा साध्य से अविरुद्ध व्याप्य की उपलब्धि विधिसाधिका कही गाईको यहाँ ध्वनि-शब्द धर्मी-पक्ष है, परिणतिमत्ता यह साध्य है, और प्रयत्नानन्तरीयकत्व हेत है। यह हेत परिणतिमत्व साध्य के साथ कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध से युक्त होता हुआ हो व्याप्यरूप बना है। क्योंकि आकाश आदि पदार्थों में परिणतिमत्व तो है पर वहाँ प्रयत्नानन्तरीयकता नहीं है । इसी कारण यहाँ प्रकृत में साध्याविनाभावरूप व्याप्यत्व गृहीत नहीं हुआ है किन्तु कथंचित् तादात्म्य सम्बध से स्थित प्रयत्नानन्तरीयकतारूप स्वभाव ही शब्द का यहाँ व्याप्य पद से गृहीत हुआ है। इसी से इसका दूसरा नाम स्वभावोपलब्धि भी कहा गया है । जिस रूप से कार्यात्मक धूमादिरूप हेतु वह्निरूप साध्य के व्याप्य माने जाते हैं उस रूप से अपने साध्य के साथ कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध वाला हेतु व्याप्य नहीं माना जाता है । किन्तु वह उसका स्वभाव रूप होता है, इससे वह उसका व्याप्य माना जाता है । इसी कारण कार्यात्मक हेतु का यहाँ व्याप्य पद से ग्रहण नहीं हुआ है क्योंकि वह उसका स्वभाव नहीं होता है। बतिऔर धूम ये दोनों परस्पर भिन्न हैं। अतः इनमें तादात्म्य सम्बन्ध का अभाव है इसलिए धूमझप व्याप्य हेत में वह्नि स्वमावता नहीं आती है। अतः शब्द अनित्य है क्योंकि वह प्रयत्न से जन्य होता है । यहाँ यह हेतु साध्याविरुद्ध ब्याप्योपलब्धि रूप हेतु है । यहाँ पाब्द में इस हेतु की उपलब्धि माधर्म्य और वैधर्म्य दोनों प्रकार से है।
तात्पर्य कहने का यही है कि यहाँ साध्याविरुद्ध व्याप्योपलब्धि में वही धर्म व्याप्य रूप से गृहीत हआ है जो अपने साध्य के साथ कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध से युक्त है । इसी कारण इसका दूसरा नाम स्वभावोपलब्धि भी कहीं-कहीं कहा गया है ॥ ४० ॥