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न्यायरत्न : न्याय रलावली टीका : तृतीय अध्याय, सूत्र : २२-२३ । में है या कोई और दूसरी जगह है इस प्रकार का सन्देह हो जाता है, अतः साध्य के आधार विषयक सन्देह को दूर करने के लिये गम्यमान भी पक्ष का प्रयोग करना दोषावह नहीं है किन्तु आवश्यक है ।।२१।।
सूत्र--साधन समर्थनमिव पक्षप्रयोगोऽपर्यनुयोगार्हः ।। २२ ॥
संस्कृत टीका-कार्यस्वभावानुपलब्धिभेदेन त्रिविधं साधनमुक्त्वंव तस्म असिद्ध यादि दोष परिहारपूर्वकं स्वसाध्य - साधन - सामर्थ्य प्ररूपणरूपं समर्थनं विदधानो बौद्धः परं प्रति कयं पक्ष प्रयोग प्रश्नाह कुर्यात् । तत्समर्थनस्यापि समान प्रश्नात्यात् असमयिता है स्वसाध्य साधने मस्ति हेतुमभिधायैव तत्समर्थनं भवितुमर्हतीति चेत्पक्षप्रयोगमन्तरेण साधनमपि कुत्र स्वसाध्यं साधयेदिति पक्षस्यापि प्रयोगः करणीयः।
हिन्दी व्याख्या-बौद्धों ने कार्य हेतु, स्वभाव हेतु और अनुपलब्धि हेतु इस तरह से तीन प्रकार के हेतु भाने हैं। और वे यह भी मानते हैं कि जब तक हेतु का समर्थन नहीं किया जाता है तब तक वह अपने साध्य की सिद्धि कराने में असमर्थ रहता है। यह हेतु असिद्ध नहीं है विरुद्ध नहीं है इत्यादि रूप से हेतुगत कण्टकों का उद्धार करना और वह अपने साध्य को सिद्ध करने में समर्थ है ऐसा प्रकट करना इसी का नाम समर्थन है। इस पर जैन दार्शनिकों का ऐसा कहना है कि जिस प्रकार हेतु का कथन करके ही उसका समर्थन किया जाता है इसी प्रकार से पक्ष का प्रयोग करके ही वहां पर साध्य की सिद्धि हेतु द्वारा की जा सकती है, बिना इसके नहीं । हेतु के प्रयोग बिना जैसा समर्थन उसका नहीं हो सकता है इसी प्रकार पक्ष के प्रयोग किये बिना हेतु अपने साध्य की सिद्धि निश्चित आधार में नहीं कर सकता है--अतः 'पक्ष का प्रयोग अवश्य ही करना चाहिए ।। २२ ।।
सूत्र–हेतुप्रयोगो द्विविधस्तथोपपत्तिरूपोऽन्यथानुपपत्तिरूपरच ॥ २३ ॥
संस्कृत टीका-तथा-मत्येव साध्ये हेतोस्पपत्तिः सद्भावः तथोपत्तिः, अन्बय स्वभावः असति साध्ये हेतोरनुपपतिः-असद्भावः अन्यथानुपपसिः व्यतिरेकस्वभावः अनमोस्तथोपपत्यन्यथानुपपत्त्योमध्यादन्यतरस्याः प्रयोगेनैव साध्यसिद्धी सत्यां द्वितीयस्याः प्रयोगस्यैकत्र साध्ये नरर्थक्यम् । पर्वतोऽयं वह्निमान् घूमवत्त्वोपपत्तेरयं तथोपपत्तिरूपो हेतुप्रयोगः तथा पर्वतोऽयं वह्निमान् धूमवत्वान्यथानुपपत्तेरयम् अन्यथानुपपत्तिरूपो हेतुप्रयोगः । लथोपपत्स्यन्यथानुपपत्तिभ्याम् अन्बय व्यतिरेकावेव शब्दान्तरेण प्रतिपादिती बोन्यौ।
सूत्रार्थ-तथोपपत्तिरूप एवं अन्यथानुपयत्तिरूप के भेद से हेतुप्रयोग दो प्रकार का है। हेतु दो प्रकार का नहीं है। तथोपपत्तिरूप जो हेतुप्रयोग होता है वह अन्वय रूप होता है तथा अन्ययानुपपत्तिरूप जो हेतुप्रयोग होता है वह व्यतिरेकरूप होता है।
हिन्दी व्याख्या-साध्य के सद्भाव का नाम तथा है और उपपत्ति नाम हेतु का होना है । हेतु का सद्भाव साध्य के सद्भाव में ही होता है अतः जब ऐसा कहा जाता है कि "पर्वतोऽयम् अग्निमान् धूमवत्त्वोपपत्तेः" तो यहाँ पर धूमवत्त्वोपपत्तिरूप जो हेतु है वह तथोपपत्तिरूप हेतु है। क्योंकि यहाँ पर साध्य के सद्भाव में माधन का सद्भाव प्रकट किया गया है । इसी तरह जब कोई ऐसा कहता है कि "पर्वतोऽयम् अग्निमान् धूमवत्वान्यथानुमातेः" तो यहाँ पर "धूमवस्वान्यथानुवपनेः" रूप जो यह हेतु है वह अन्यथानुपपत्ति १. यहा "च" शब्द से उपलब्धिपरून आदि और भी हेतु के भेदों का सूचन किया गया है । न्या०टी०८