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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : तृतीय अध्याय, सूत्र २०-२१ भावरूप व्याप्ति सहभाव नियमरूप और क्रमभावनियमरूप होती है-सहभाव नियम का व्याप्ति सहचारी रूप रूपरसादिकों में और व्याप्य व्यापकों में होती है। यह नियम है कि जहाँ पर रूप होगा वहाँ पर रस, गन्ध, स्पर्श ये अवश्य ही होंगे क्योंकि ये सब सहभावी हैं अतः एक के सद्भाव से अपर का सद्भाव अनुमित हो जाता है । पूर्वघर एवं उत्तरचर में तथा कार्य-कारण में क्रमभाव नियम होता है ।।१६।।
. सूत्र-पक्षीकसे धमिणि तदन्यत्र च साध्यसाधनयोाप्तिग्रहोऽन्सबाहिर्याप्तिः ।। २० ॥
___ संस्कृत टीका---उत्तनाथमदः-पक्षीकृते विषये साधनस्य साध्येन व्याप्तिरव्यभिचारोऽन्त पितरुक्ता पूर्वम् । बहिः पक्षीकृता विषयादन्यत्र तु दृष्टान्तमिणि तस्य तेन व्याप्तिर्बहिाप्तिरिति उक्तम् ।
सूत्रार्थ-पक्ष में साध्य साधन की व्याप्ति का ग्रह और पक्ष से बाहर सपक्ष में व्याप्ति का ग्रह क्रमशः अन्तयाप्ति और बहिर्व्याप्ति का स्वरूप है।
हिन्दी व्याख्या-१९, सूत्र द्वारा इस सम्बन्ध में विवेचन किया जा चुका है तात्पर्य केवल इतना ही है कि पक्ष में ही जो साध्य साधन की व्याप्ति है वह अन्तर्व्याप्ति है और पक्ष से बाहर--सपक्ष --दृष्टान्त में जो साध्य साधन की व्याप्ति है वह बहिर्व्याप्ति है ।। २० ॥
सूत्र-जे हेतोपसंहार बचतवत् साध्ये विवक्षिताधारता प्रदर्शनार्थं स प्रयोक्तभ्यः ॥२१॥
संस्कृत टीका-इदं साध्यं प्रतिनियतस्थाने वत्तते इत्येवं प्रतिनियत माध्याधारं प्रदर्शयितुं गम्यमानस्यापि पक्षस्य प्रयोगः करणीयः अन्यथा साध्य सन्देहापनोदो न स्यात् यथा-''पर्वतोऽयमग्निमान् धूमवत्त्वात् यत्र-यत्र धूमस्तत्र-स्तत्र अग्निर्यथा महानसम् तथा चायम्" अमुना प्रकारेण हेतोः प्रतिनियत र्धामाणि सदभावख्यापनार्थ प्रयोगः क्रियते तथव साध्य व्याप्त साधन प्रदर्शनेन पर्वतादिरूप-पक्षो गम्यो जायते तथापि साध्यस्य बन्ह्यादेविवक्षिताधाराधिगमार्थ गम्यस्यापि पक्षस्थ प्रयोगोऽपि आश्रयितव्यः कथितः।
हिन्दी व्याख्या--बौद्ध सिद्धान्त पक्ष का प्रयोग नहीं मानता है । अतः पक्ष का प्रयोग अवश्य करना चाहिये इस बात को प्रकट करने के लिये यह सूत्र कहा गया है । इसके द्वारा यह प्रकट किया गया है कि जब वक्ता ऐसा कहता है कि धूमवाला होने से यह पर्वत अग्निवाला है तो इस प्रकार के प्रतिपादन से धूम और अग्नि निराधार तो रहते नहीं हैं किसी न किसी आधार पर ही रहते हैं अतः इतने कथन से यद्यपि साध्य का आधार सामान्यतः जान लिया जाता है । अतः जान लिये गये को जानने के लिये पुनः उसका प्रयोग करना निरर्थक है ऐसी बौद्ध की आशङ्का का परिहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि जो पक्ष का प्रयोग किया जाता है वह निरर्थक इसलिये नहीं है कि उससे साध्य का प्रतिनियत आधार प्रकट किया जाता है जैसे-"जहाँ-जहाँ धूम होता है वहाँ-वहाँ अग्नि होती है जैसे रसोईघर, उसी प्रकार से यहां पर भी धूम है" इस प्रकार से हेतु की विवक्षित आधारता प्रकाशित करने के लिये पुनः पक्ष में हेतु का प्रयोग किया गया निर्दोष माना गया है । यदि पक्ष का प्रयोग न किया जाय तो साध्य कहाँ पर है पर्वत
सहक्रममाबिनोः सहक्रम भावनियमोऽविनाभावः। -प्रमाण मीमांसा ४१ सहक्रम भावनियमोऽविनाभावः १५. सहचारिणोच्याप्य व्यापकयोपच सहभावः १२ पूर्वोत्तरचारिणो कार्य कारणयोपच क्रमभावः ॥ १३॥ -परीक्षामुख ३२.३