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विकलादेश कहा जाता है । स्याद्वाद या सकलादेश किसी अन्य रूप में ? वेदान्त में दो दृष्टि हैं-प्रतिद्वारा सम्पुर्ण वस्तु का कथन होता है। विकलादेश भास और परमार्थ । परमार्थ से ब्रह्म सत्य है, जगत् अर्थात् नय द्वारा वस्तु के किसी एक देश का कथन मिथ्या है । परन्तु प्रतिभास से जगत भी सत्य होता है।
प्रतीत होता है। प्रतिभास व्यवहार और जो परवस्तु अनेक धमत्मिक है-अनेकांसात्मक है। मार्थ है, वस्तुतः वही निश्चय कहा जाता है। वस्त का ज्ञान भय एवं प्रमाण से होता है। अनेका- इन्द्रियगम्य बस्त का स्थल रूप व्यवहार की स्मक वस्तु के कथन की दो प्रकार की मर्यादा के दृष्टि से यथार्थ है । इस स्थूल रूप के अतिरिक्त कारण स्याद्वाद और नय का भिन्न-भिन्न निरूपण बस्तु का सूक्ष्म रूप भी होता है, जो इन्द्रियों का किया गया है। अनेकांतवाद और नय, स्यावाद विषय नहीं हो सकता । वह केवल थ न या आत्म
और सप्तभंगी, जैनदर्शन के विशिष्ट तथा गम्भीर प्रत्यक्ष वा विषय होता है । वस्तुत: यही निश्चय सिद्धान्त हैं । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने स्वरचित दृष्टि अथवा निश्चयनय कहा जाता है। निश्चय सन्मति तक में अनेकान्त और नयों का विस्तार से और व्यवहार में यही अन्दर है कि व्यवहार वस्तु वर्णन किया है। आचार्य समन्तभद्र ने स्वरचित के स्थूल रूप को ग्रहण करता है और निश्चय सूक्ष्म आप्तमीमांसा में स्याद्वाद और सप्तभंगी का सुन्दर रूप को । आचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्य और तत्व का वर्णन किया है । नय भी सप्त हैं और भंग भी सप्त जो वणन किया है, वह निश्चय प्रधान वर्णन है ।
आचार्य व्यवहारनय को भी स्वीकार करते हैं । नयों के भेद
लेकिन गौण रुप में । समयसार तो एकदम निश्चय
का कथन करता है। यही कारण है कुन्दकुन्द दर्शन, मुल में नयों के दो भेद हैं-द्रव्यनय और
सांख्य तथा वेदान्त के निकट पहुँच गया है । पर्यायमय-द्रव्याथिक तथा पर्यायाथिक । द्रव्यदृष्टि अभेदमूलक है और पर्यायष्टि भेदमुलक है।
अर्थनय और शब्दनय आचार्य सिद्धसेन के कथनानुसार भगवान् महावीर के आगमों में स्पष्ट रूप में सप्त नयों का वर्णन प्रवचन में मूलतः दो ही दृष्टि हैं-द्रव्यार्थिक और मिलता है । भगवती सूत्र, स्थानांग सूत्र और अनुयोग पर्यायाथिक । जगत् का व्यवहार भी दो प्रकार का द्वार सूत्र आदि में । नयों की संख्या और स्वरूप में है-भेदगामी अथवा अभेदगामी। भेद का अर्थ है काफी मतभेद रहे हैं । आगमगत त्रय, दर्शनगत नय विशेष । अभेद का अर्थ है- सामान्य । जैनदर्शन में और तर्कमत नयों में बहुत भिन्नता रही है । अनुवस्तु सामान्य-विशेषात्मक मानी है।
योग द्वार सूत्र में शब्द- समभिरूढ़ और एवंभूत को व्यवहार और निश्चय
शब्दनय कहा गया है। बाद में नयों को दो भागों
में विभक्त किया गया- अर्थनय और शब्दनय । जो भागमों में निश्चय और व्यवहार से कथन नय अर्थ को अपना विषय बनाते हैं, वे अर्थनय हैं । करने की प्राचीन परम्परा है। कथन कहा पर नंगम. संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र-अर्थ को निश्चय से होता है, तो कहीं पर व्यवहार स। विषय करते हैं। अतः ये चार अर्थनय हैं। शब्द, व्यवहार आरोप अथवा उपचार होता है । व्यवहार
समभिरूढ़ और एवंभूत-ये तीन शब्द को विषय से कोयल कृष्ण वर्ण की है, लेकिन निश्चय से उस में
__ करते है । अतः ये तीन शब्द नय हैं। पंचवर्ण हैं । धृत घट यह कथन भी व्यवहार का है, निश्चय में घट घृत का नहीं होता। जो वस्तु जैसी नयों के सात भेद प्रतिभासित होती है, उसी रूप में वह सत्य है, या जनदर्शन में नय के सात भेद मिद्ध हैं--नेगम,