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प्रमाण के ये दो भेद हैं। लेकिन जैन दर्शन के अनुसार अनुमान परोक्ष का ही एक भेद है। अतः बौद्ध दर्शन का प्रमाण विभाजन अपूर्ण ही हैं। वैशेषिक और सांख्य के तीन प्रमाण हैं- प्रत्यक्ष अनुमान और आगम । नैयायिक के चार है- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम एवं शब्द । प्रभाकर के पाँच हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम और अर्थापत्ति | भाट्ट सम्प्रदाय के छह हैं-त्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि अर्थात् अभाव । चार्वाक केवल एक ही प्रमाण स्वीकार करता है- प्रत्यक्ष | जैन दर्शन मान्य दोनों प्रमाणों में, ये सब प्रमाण समा जाते हैं, सबका अन्तर्भाव दो में ही हो जाता है । अतएव प्रमाण दो ही हैं-न कम और न अधिक ।
प्रत्यक्ष के भेद
प्रत्यक्ष अपने आप में पूर्ण है । उसे किसी अन्य आधार के सहयोग की आवश्यकता नहीं | प्रमाण मीमांसा, प्रमाणनय तत्वालोकालकार और परीक्षामुख में विशद तथा स्पष्ट ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा गया है। उसके दो भेद हैं- सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्ष पारमार्थिक के दो भेद हैंसकल और विकल | सकल प्रत्यक्ष केवलज्ञान है, और विकल प्रत्यक्ष- अवधिज्ञान और मनःपर्याय ज्ञान है। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष से चार भेद हैंअवग्रह, ईहा अवाय, और धारणा । मतिज्ञान के समस्त भेद-प्रभेद इसके अन्तर्गत आ जाते हैं । इन्द्रिय जन्य और मनोजन्य ज्ञान भी सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष केही भेद माने जाते हैं । जैन दर्शन में ये सब प्रत्यक्ष हैं ।
परोक्ष के भेद
जो ज्ञान अविशद और अस्पष्ट है, वह परोक्ष है । परोक्ष, प्रत्यक्ष से ठीक विपरीत है, जिसमें विशदता एवं स्पष्टता का अभाव है, वह परोक्ष प्रमाण है। उसके पांच भेद हैं- स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम । अतीत का ज्ञान, स्मृति
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है, अतीत और वर्तमान का ज्ञान, प्रत्यभिज्ञान है, व्याप्ति ज्ञान में सहयोगी ज्ञान, तर्क है, हेतु से साध्य का ज्ञान, अनुमान है। आप्त वचन से होने वाला ज्ञान है, आगम । संक्षेप में, ये सब परोक्ष प्रमाण हैं ।
प्रमाण का प्रमाणत्व
न्याय में इस विषय पर काफी तर्क-वितर्क होता रहा । प्रामाण्य का निश्चय स्वतः होता है, कि परतः ? मीमांसक स्वतः प्रामाण्यवादी है । नैयायिक परतः प्रामाण्यवादी है। सांख्य का कहना है, कि प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों ही स्वतः होते हैं । जैन दर्शन इन तीनों से भिन्न सिद्धान्त की स्थापना करता है । प्रामाण्य निश्चय के लिए स्वतः प्रामाण्य और परतः प्रामाण्य दोनों की आवश्यकता है । अभ्यास में स्वतः और अनभ्यास दशा में परतः । यह विषय का संक्षेप है । प्रमाण का फल
अर्थं का ठीक-ठीक स्वरूप समझने के लिए प्रमाण का ज्ञान आवश्यक है। प्रमाण का साक्षात्फल अज्ञान का नाश है । केवलज्ञान के लिए उसका फल सुख और उपेक्षा है, शेष ज्ञानों के लिए ग्रहण और त्याग बुद्धि है । यह कथन आचार्य सिद्धसेन दिवाकर का है । सामान्य दृष्टि से प्रमाण का फल यही है, कि अज्ञान नहीं रहने पाता । जैसे सूर्योदय होने पर अन्धकार नहीं रहता ।
जैनदर्शन में नयवाद
जैन परम्परा में पांच ज्ञानों की मान्यता अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही है। श्रुत का अर्थ है, जो सुना गया हो । परम्परा से जिसे सुनते आए हैं, वह श्रुत होता है। शास्त्र ज्ञान और आगम भी कहते हैं । श्रत के दो उपयोग होते हैं सकलादेश और विकलादेश | सकलादेश को प्रमाण या स्याद्वाद कहते हैं। विकलादेश को नय कहते हैं । धर्मातर की अविवक्षा से किसी एक धर्म का कथन,
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