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न्यायरत्न : भ्यायरत्नावली टीका : द्वितीय अध्याय, सूत्र ७ जावतेनान्यत्र । उपकार-प्रयोजकसाधनमत्रोपकरणशब्देनाभिहितम् । उपकरणरूपं द्रव्येन्द्रियमपि बाह्याभ्यन्तरोपकरणभेदाद द्विविधम् । यथा नयने कृष्णशुक्लमण्डलमाभ्यन्तरोपकरणम् अक्षिपत्रपक्ष्मद्वया दिरूप पंच बाह्यमुपकरणम् । एवं शेषेष्वपि इन्द्रियेषु ज्ञातव्यम् ।
___लब्ध्युपयोगभेदाद् भावेन्द्रियमपि द्विविधम् । मतिज्ञानावरण चक्षुदर्शनावरणाचक्षुर्दर्शनाचरणकर्मक्षयोपशमाज्जायमानमात्मनि जानदर्शनरूप-सामयं -लब्धिरूपं भारेन्द्रियम्, एतच्च सर्वात्मप्रदेशेषु वर्तमानमुक्तम् । क्षयोपशमस्य सर्वाङ्गरूपेण सद्भावात् । लब्ध्युपकरणनितीनां सद्भावे सति विषयेषु जायमामा प्रवृत्तिरूप योगरूपं भवेन्द्रियम् । द्रव्येन्द्रियस्य पुद्गलात्मकत्व कथनेन भिन्न जातीयेभ्यः पृथिव्यादिभ्यश्चक्षुरादीनामाविर्भाव प्रतिपादनं गिरतं ज्ञातव्यम् ।।७।।
सूत्रार्थ- द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय के भेद से प्रत्येक इन्द्रिय दो-दो प्रकार की कही गई है।
हिन्दी व्याख्या-इन्द्रिय का लक्षण वाहकर सूत्रकार ने उनके द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय के भेद से दो-दो भेद हम सुत्र द्वारा प्रतिपादित किये हैं। इस तरह श्रोग्रेन्द्रिय, चक्षुइन्द्रिय आदि पांचों ही इन्द्रियाँ द्रव्य और भावेन्द्रिय रूप से दो-दो प्रकार की हैं, यह बात समर्थित हो जाती है । इनमें द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय का स्वरूप प्रबाट करते हुए सूत्रकार कहते हैं, कि जो पुद्गन और आत्मप्रदेश भिन्नभिन्न इन्द्रियाकार से रत्ना वाले हो रहे हैं, वह द्रव्येन्द्रिय है। तथा क्षयोपशमविणेपरूप में होने वाला जो आत्मा का ज्ञान-दर्शनस्ताप परिणाम है, वह भावेन्द्रिय है। कर्णशाकूलीप श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुगोलक रूप नेन्द्रिय. तासापुटरूप प्राणेन्द्रिय, जिह्वारूप रसनेन्द्रिय और त्वचारूप स्पर्शनेन्द्रिय ये सन्त्र द्रव्येन्द्रिय हैं। यह द्रव्येन्द्रिय नि ति द्रव्येन्द्रिय और उपकरण द्रध्येन्द्रिय के भेद से दो प्रकार की होती है। नियंति नाम रचना का है । इन्द्रियाकार जो रचना है, वह निर्वृत्ति द्रव्येन्द्रिय है, और यह कर्णशप्कूली आदि रूप होती है। यह निर्वृत्ति बाह्यनिर्वृत्ति और आभ्यन्तर निवृत्ति इस तरह से दो प्रकार की कही गई है। पुद्गलों की जो भिन्न-भिन्न इन्द्रियरूप मे रचना हो रही है, वह वाह्यनिवनि है एवं आत्मा के प्रदेशों की जो इन्द्रियाकाररूप से रचना हो रही है, वह अभ्यन्तर निवृत्ति है यद्यपि प्रतिनियत इन्द्रिय सम्बन्धी ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का क्षयोपशम सर्बाङ्ग होता है, तथापि अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदयानुसार हो जहाँ पुद्गल प्रचयफ। जिस द्रव्येन्द्रिय की रचना होनी होती है वहीं के आत्मप्रदेशों में उस-उस इन्द्रिय के कार्य करने की क्षमता होती है, अन्यत्र नहीं। उपकार का प्रयोजक साधन उपकरण शब्द से लिया गया है, अतः उपकरणरूप जो द्रव्येन्द्रिय है, वह भी बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार की है। आँख में जैसे कृष्ण शुक्ल मण्डल यह आभ्यन्तर उपकरण है और बाहर में जो अक्षिपत्र पक्ष्म आदि रूप है, वह बाह्य उपकरण है। इसी तरह का कथन शेष इन्द्रियों में भी कर लेना चाहिये । लब्धि और उपयोग के भेद से भाडेन्द्रिय भी दो प्रकार की होती है । मतिज्ञानावरण, चक्षदर्शनावरण और अचक्षु दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम को लेकर जो आत्मा में शानदर्शनरूप शक्ति उत्पन्न होती है, वह लब्धिरूप भावेन्द्रिय है। यह लब्धिरूप भावेन्द्रिय आत्मा के समस्त प्रदेशों में विद्यमान रहती है। क्योंकि क्षयोपशम सर्वाङ्ग होता है तथा-लब्धि, निति और उपकरण इन तीनों के होने पर जो विषयों का जानना होता है, वह उपयोगरूप भावेन्द्रिय है, बायनिवृतिरूप द्रव्येन्द्रिय को जो पुद्गलस्वरूप रूप, रस, गन्न और स्पर्श गुणयुक्त पुगलात्मक कहा गया है। उससे “भिन्न जातीय पृथिव्यादिकों से इनका आविर्भाव होता है। ऐसा मानने बाले नैयायिक के सिद्धान्त का निरसन हो जाता है तथा सांख्य का यह कथन कि इन्द्रियों का आविर्भाव अहङ्कार से होता है, इसका निरसन हो जाता है। इस सम्बन्ध में चर्चा मध्यमा परीक्षा वाले न्यायरत्न के अनुवाद में की जावेगी। यह प्रथमा परीक्षोपयोगी
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