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भ्यायरत्न : न्यायरलावली टीका: प्रथम अध्याय, सूत्र १०
सत्रार्थ-शान के स्वरूप से भिन्न जी बाह्य पदार्थ है वह पर है । क्योंकि ज्ञान इसे जान कर ही प्रमाणभूत माना जाता है । स्वरूप को जानकर ज्ञान में प्रमाणता नहीं मानी गई है ।।१०॥
हिन्दी व्याख्या- प्रमाण का लक्षण करते समय जो ज्ञान का विशेषणभूत पर शब्द है, उसका वाच्यार्थ सत्य रूप से प्रकट करने के लिये ही सूत्रकार ने इस सूत्र का कथन किया है। स्व शब्द से ज्ञान का स्वरूप और पर शब्द से ज्ञान स्वरूप से भिन्न घट-पटादि पदार्थ कहे गये हैं, और ये पर शब्द से इस लिये गृहीत किये गये हैं, कि कितने अन्य सिद्धान्तकार जैसे कि ज्ञानाद्ध तवादी ऐसा मानते हैं कि जो भी प्रतिभासित होता है-ज्ञान के द्वारा जाना जाता है - वह सब ज्ञान को स्वरूप की तरह ज्ञान रूप ही हैं ज्ञान से अतिरिक्त स्वतन्त्र पदार्थ कोई नहीं है, अतः घट-पटादि रूप से उनकी स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध नहीं होती है । माध्यमिक संप्रदाय वाले योगाचार ऐसा कहते हैं, कि ये घट-पटादि रूप से प्रतिभासित होने बाले सब पदार्थ स्वप्न प्रतिभास की तरह असत्वरूप ही हैं। जिसप्रकार स्वप्न में नाना प्रकार के पदार्थों का प्रतिभास होता है, पर जगने पर एक भी मान-ट्रष्ट पदार्थ का अस्तित्व प्रतीति में नहीं आता है। किन्तु ख (गगन) की तरह वे सब गन्यम्प से ही ज्ञात होते हैं। सो ऐसी मान्यताओं को हटाने के लिये ही सत्रकार ने इस सत्र का स्वतन्त्र रूप से निर्माण किया है । इस सूत्र द्वारा सबल युक्तियों से यह समझाया गया है कि ज्ञान से भिन्न ज्ञेय पदार्थ हैं और वे सत्स्वरूप ही हैं, असत्स्वरूप नहीं और न ज्ञानस्वरूप ही हैं । इस तरह ज्ञान और ज्ञान से अतिरिक्त घट-पट आदि पदार्थों की सत्ता मौजूद होने से ज्ञान और ज्ञ यरूप दो तत्त्व हैं । ऐसा मानना चाहिये । अतः ज्ञान ही वास्तविक तत्त्व है । ज्ञान से अतिरिक्त प्रतिभासित होता हआ जो घट पटादि प बाह्य पदार्थ हैं बह ज्ञान का ही आकार विशेष है। इस तरह से अनित्य ज्ञानाद लबादी योगाचार का जो मत है वह इस पद के रखने से निरस्त हो जाता है। क्योंकि ज्ञान से अतिरिक्त घट-पट आदि बाह्य पदार्थ की सत्ता के विना "यह घट है, यह पट है" इस तरह परस्पर भिन्न-भिन्न रूप से ज्ञान का प्रतिभाम बन नहीं सकता है और प्रतिभास तो ज्ञान में होता है
स्तविक रूप से घट-पट आदि विभिन्न पदार्थों की सत्ता माननी चाहिये और इस तरह के प्रतिभास होने में परस्पर भिन्न-भिन्न सत्ता वाले पदार्थों को हेतु मानना चाहिये । यदि इस पर यह कहा जाय कि अनादि काल से ऐसी ही वासना चली आ रही है कि जिसकी वजह से "यह घट है, यह पट है" इत्यादि रूप से ज्ञान हो जाता है तो इस पर यह पूछा जा सकता है कि वह बासना ज्ञान से अभिन्न है या भिन्न है? यदि बासना को ज्ञान से अभिन्न माना जाय तो ज्ञान और बासना ऐसी दो चीजें सिद्ध नहीं हो सकती ; क्योंकि अभिन्नता में एक तात्त्विक ज्ञान की ही सिद्ध होगी । बासना की स्वतन्त्र सिद्धि नहीं हो सकेगी। अत: अकिञ्चित्कर उस वासना के वश से ज्ञान के द्वारा घट-पट आदि रूप से भिन्न-भिन्न आकार का प्रतिभास होता है, ऐसा कथन शोभास्पद नहीं हो सकता। यदि ज्ञान से वासना को भिन्न माना जाय तो इस पक्ष में एक ज्ञानादत ही है ऐसा पक्ष भङ्ग हो जाता है क्योंकि ज्ञान से अतिरिक्त एक वासना की भी स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध हो जाती है । अतः इन सन्न दोषों से बचने के लिये बाह्य घट-पट आदि पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार करना चाहिये । इस सूत्र का तात्पर्य इतना ही है कि अन्य कितने ही सिद्धान्तकारों की बाह्य घट-पट आदि पदार्थों की मान्यता में भिन्न-भिन्न प्रकार की कल्पनाएँ हैं । अतः उन सब कल्पनाओं को हटाने के लिये वाह्य घट-पट आदि पदार्थ वास्तविक हैं, स्वप्नोपम पदार्थ जैसे नहीं है और न वे ज्ञानस्वरूप हैं । इस बात को साबित करने के लिये इस स्त्र की सूत्रकार ने रचना की है ।।१०।