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न्यायररन : न्यायरत्नावली टोका : प्रथम अध्याय, सूत्र १०
|१५ प्युच्यते । तथा वस्तुमात्रस्यैव सामान्यविशेषात्मकत्वेन यदा दूरत्वादि दोषवशात् यस्मिन् ज्ञाने वस्तुनो विशेषांशस्य स्फुटरूपेण भानं न भवति अपितु सामान्यांशस्यैव भानं भवति एवंविधं विशेषाग्राहकम् "अस्ति कि स्विद्" इत्येवं सामान्यतो ज्ञान अनध्यवसायरूपं दर्शनमबगन्तव्यमिति भावः । तम्य ज्ञानस्य पुरुषत्वादि विशेषांशाग्राहित्वात् किस्विदित्वा लोचनात्मकत्वाच्च दर्शनत्वं बोध्यम्, यथा पथि गच्छतस्तृणस्पर्शाद्यवस्थायाम् एवं जातीयकम् एवं नामकमिदमित्यादि विशेषरूपेणावधारणं न भवति अपितु "किमपि वस्तु मया स्पृष्टम्" इत्याकारकमालोचनात्मकं ज्ञानं भवति--ईदमेव च अनध्यवसाय स्वरूपं जातव्यम् ॥६॥
सूत्रार्थ- विशेषांग को ग्रहण नहीं करके जो केवल "यह कुछ है" इस प्रकार से मामान्यांश को ग्रहण करने वाला बोध होता है, वही अनध्यवसाय है । यह अनध्यवसाय ज्ञान निर्विकल्पक दर्शनरूप होता है ।।६
हिन्दी व्याख्या-वस्तु सामान्य और विशेष धर्मों वाली मानी गई है। सामान्य ज्ञान से अर्थक्रिया नहीं होती है, विशेषज्ञान से ही अर्थक्रिया होती है । अतः वस्तु के विशेषांश को नहीं जाने वाला और केवल सामान्यांश को ही ग्रहणः न वाला रसान होता है मेरे राम चलते हुए पुरुष को तृणस्पर्श के होने पर "कुछ स्पर्श हुआ ऐसा जो ज्ञान होता है, बही अनध्यवसाय ज्ञान है । यह अमध्यवसाय ज्ञान दर्शनरूप कहा गया है।
बौद्ध सिद्धान्त की मान्यता जैसी दर्शन--निर्विकल्पकदर्शन के सम्बन्ध में है, ऐसी ही मान्यता इम अनध्यवसाय के विषय में आर्हत दर्शन की है । निर्विकल्पकदर्णन में केवल सत्ता मात्र का सालोचन होता है, विशेष का नहीं । यह ज्ञान उस समय होता है, जब दूरी आदि कारणों को को लेकर बस्तु के विशेषांश का स्फुट रूप से भान नहीं होता है किन्तु सामान्यांश का ही भान होता है। तब वह कुछ है ऐसा ही बोध होता है। यह गाय है, यह घोड़ा है ऐसा विशेषग्राही ज्ञान नहीं होता है । अतः सामान्य मात्र अंश को ग्रहण करने के कारण ही अनध्यवसायरूप ज्ञान होता है। रास्ते में मार्ग में चलने वाले अन्यमनस्क व्यक्ति को तृणादि के स्पर्श हो जाने पर "कुछ स्पर्श हुआ है" ऐसा ज्ञान जो होता है वह अनध्यवसाय इसलिये कहा गया है कि उस समय उसे—मुझे अमुक पदार्थ का स्पर्ण हुआ है, यह अमुक जाति का है, इसका यह नाम है, इत्यादि रूप से विशेषांश का बोध नहीं होता है, उस समय तो केवल मुझे किसी वस्तु का स्पर्श हुआ है, ऐसा ही सामान्यविचारात्मक बोध होता है। बस, इसका नाम अनध्यवसाय ज्ञान है 11६॥
सूत्र-ज्ञानस्वरूप भिन्न यार्थः परः ।।१०॥
संस्कृत टीका-प्रमाण लक्षणे ज्ञानविशेषणभूत पर शब्दार्थ प्रतिपादनार्थ सूत्रकार इदं सूत्र प्रतिपादयति----तत्र स्वशब्देन ज्ञानस्वरूपस्य गृहीतत्वात् पर शब्दस्यान्यार्थकतया कस्मादन्य इत्याकांक्षायां ज्ञानस्वरूपाद भिन्नः पदार्थः परशब्द वाच्यो भवतीति बोध्यम् ।
एतेन ज्ञानातिरिक्त घटपटादि बाह्य पदार्थोऽसत्स्वरूप एव, ज्ञानमेव तत्त्वमिति प्रतिपादयन् ज्ञानाद्वैतवादी निरस्यते, स्वप्न प्रतिभासवत् प्रतिभासमानं घटपटादिकं सर्व शून्यरूपमिति प्रतिपादयन शून्यवादी प्रक्षिप्यते । यतः ज्ञानातिरिक्त बाह्य पदार्थ सत्तामन्तरेण अयं घट: अयं पटः इत्येव परस्पर विलक्षणाकारेण ज्ञानस्य प्रतिभासः कथं भवेत्, तथा बाह्य पदार्थ सत्ताया ऋते स्वप्न प्रतिभासोऽपि न स्यात् । अनुभूत पदार्थस्यैव तत्र प्रतिभासनात् नाननुभूतस्य । तस्मात् बाह्य पदार्थसत्ता स्वीकर्तव्या भवति ॥१०॥