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न्यायरत्नावली टीका समुपेतं न्यायरत्नम्
सूत्र--स्मागरम मसायि बधिर साना ॥१..
संस्कृत टीका:-प्रमाणाधीना प्रमेयसिद्धिरिति वचनात् प्रमाणं विना न कस्याऽपि प्रमेय बस्तुनो यथार्थज्ञानं सम्भवति तस्मात्सर्वप्रथमं प्रमाणस्वरूपं प्रतिपादयितुकामः "स्वपर व्यवसायि" इत्यादि सूत्र प्रतिपादयति, अत्र प्रमाणमिति लक्ष्यम् अवशिष्टं तल्लक्षणम्, तत्रापि "स्व-पर-व्यवसायि अबाधितम्" इति ज्ञानविशेषणम्, स्वशब्देन ज्ञानस्वरूपं पर शब्देन च ज्ञानाद्भिन्नोऽर्थों शृह्यते, स्वपरौ विशेषेणसंशयादिव्यवच्छेदेन अवसातुम्-अबभासयितुं शीलं यस्य तत् स्वपर व्यवसायि-ईदृशं ज्ञानमेव प्रमाणं भवितुमर्हति नाज्ञानरूपं सन्निकर्षादि, वस्तु मात्रस्यैव सामान्य-विगेषात्मकतया यदा ग्राहकं ज्ञानं सामान्यांशं परित्यज्य विशेषांशं प्रधानतया मृणाति नदा तज्ज्ञानमित्युच्यते यदात विशेषांश परित्यज्य प्रधानतया सामान्यांश गृह्णाति तथा तदर्शनमित्युच्यते । बस्तुनो विशेषांश ग्राहकतया ज्ञानस्यैव प्रमाणत्वं नतु दर्शनस्येति सूचयितु ज्ञानं प्रमाणमित्युक्तम् । निर्विकल्पके संशयादो चातिव्याप्तिबारणाय “स्वपर व्यवसायि" इत्युक्तम् । व्यवसायिपदस्य सप्रकारक निश्चयरूपार्थकतया संशयादीनां
श्चिायकत्वाभावात् निविकल्पस्यच कल्पनारूप व्यवसायकत्वाभावेन च तन्निश्चायकत्वाभावात् नात्र लक्षणस्याति व्याप्तिः । अबाधितपदेन विपर्यय ज्ञानस्य निरासः, उत्तर काले तद्विषयस्य बावितत्कृत् । स्वपदेन ज्ञानान्तर प्रत्यक्षबादिनां नैयायिकाना, नित्यपरोक्षज्ञानवादिनां मीमांसकानाम अचेतनान्तः करणादेः ज्ञानवादिनां सांख्यानां च मतं परास्तम्, परपदेन च ज्ञानावंतवादिनां वेदान्तिनां शून्यवादिनां माध्यमिकानां च मतं निरस्तं भवति, सम्पूर्ण प्रमाणलक्षणेन तु परपरिकल्पित प्रमाण लक्षणानि ध्वस्तानि भवन्तीति ज्ञातव्यम् ।।
हिन्दी व्याख्या -स्व और पर को निर्दोष रूप से निश्चय करने वाला अबाधित ज्ञान ही प्रमाण है। इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने सर्वप्रथम जो प्रमाण के स्वरूप का "अपने को एवं पदार्थ को निर्दोष रूप से निश्चय करने वाला अबाधित ज्ञान ही प्रमाण होता है" इस रूप से प्रतिपादन किया है, वह "प्रमाणाद्धि प्रमेयसिद्धिः" प्रमाण से ही प्रमेय की सिद्धि, शप्ति, अभिलषित पदार्थ की प्राप्ति होती है, इस कथन के अनुसार ही किया है, क्योंकि प्रमाण के बिना किसी भी अभिलषित वस्तु का वास्तविक ज्ञान नहीं हो सकता है, यहाँ ज्ञान पद विशेष्य है, और स्व-पर-व्यवसायि अबाधित ये दो पद इसके विशेषणभूत हैं। प्रमाण लक्ष्य और स्वपर व्यवसायि अबाधित ज्ञान इसका लक्षण हैं । लक्षण दो प्रकार का होता हैएक आत्मभूत लक्षण और दूसरा अमात्मभूत लक्षण । इन्हीं दोनों लक्षणों को क्रमशः शास्त्रान्तर में स्वरूप लक्षण और तटस्थ (उप लक्षण) लक्षण कहा गया है । जो वस्तु के स्वरूप में तन्मय होकर मिला रहता है