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नीति वाक्यामृतम्
सेवनाद्यस्य धर्मस्य नरकं प्राप्यते ध्रुवं 1 धीमता तन्न कर्त्तव्यं कौलनास्तिक कीर्तितम् ॥
अर्थ :- बुद्धिमन्त पुरुष कौल और नास्तिकों द्वारा वर्णित धर्म ( धर्माभास) यथा मद्यपान, मांसभक्षण, परस्त्री सेवन आदि में प्रवृत्ति नहीं करना चाहिए। क्योंकि यह धर्म नहीं अधर्म ही है और भयंकर नरकादि दुर्गतियों का कारण
है ।
अभिप्राय यह है कि सुबुद्धजनों को सर्वज्ञप्रणीत समीचीन धर्म व कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिये । यही संसारातीत दशा प्राप्त कराने में समर्थ है। सच्चा धर्म ही सेवन करने योग्य है ।
अन्याय से सुख लेश हानि अधिक
इदमिह परमाश्चर्यं यदन्याय सुखलवादिहामुत्र चानवधिर्दुः खानुबन्धः 1148 ॥
अन्वयार्थ :- ( इह ) इस लोक में (इदम्) यह (परमाश्चर्यम् ) महान आश्चर्य है कि ( सुखलवात्) थोड़े से सुख से (यंत्) जो (अन्यायात्) अन्याय से हो तदर्थ (दुःखानुबन्धः) दुःख का सम्बन्ध (अनवधि) अपार हो (इहामुत्र) इसलोक और पर लोक में भी । इससे अधिक आश्चर्य क्या है ?
संसार में अन्याय से प्राप्त धन दौलत क्षणिक, अल्प सुख प्रदान करती है परन्तु उभयलोक में असीम दुःख दाता होती है । ऐसे अन्यायोपार्जित धन के पीछे लगना परमाश्चर्य है ।
विशेषार्थ :- अन्याय से प्राप्त धनराशि आने के क्षणों में क्षणिक आनन्द प्रदान करती है, परन्तु पायोदय आते ही वह अपार दुःखों का पर्वत डाह कर स्वयं कपूर सी उड़ जाती है। कहा भी है
अन्यायेनोपार्जितं वित्तं दस वर्षाणि तिष्ठति ।
प्राप्तेषु एकादशे वर्षे समूलं हि विनश्यति ।।
अन्याय से कमाया धन अधिक प्रयत्न करने पर मात्र दस वर्ष टिक सकता है। ग्यारहवाँ साल आते ही समूलपूर्णतः नष्ट हो जाता है। सत्पुरुष ऐसे नश्वर और वंचक धन का संचय कभी भी नहीं करें । कुमार्ग गामी का धनवैभव मात्र दिखावा है । विद्युत की चमकवत् नष्ट हो जाने पर प्रभूत दुःखानुभूति कराता है। कौन विवेकी अन्याय कर, कठोर शारीरिक श्रम पर आपत्तियाँ खरीदेगा ? अपितु कोई नहीं । हमें यह कष्ट उठाना पड़ रहा है अनेकों को इसका भान भी नहीं होता, यही परमाश्चर्य है ।
जो लोग चोरी और छल-कपट द्वारा धन संचय करते हैं और किंचित मात्र सांसारिक क्षणिक, अल्प सुख भोगते हैं। उन्हें इसका भयंकर कटुफल, भयङ्कर दुःख भोगने पड़ते हैं । परन्तु अज्ञानी जन इधर दृष्टि ही नहीं डालते यही परमाश्चर्य है । विद्वान वशिष्ठ ने भी इसी बात का समर्थन किया है
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चित्रमेतद्धि मूर्खाणां यदन्यायार्जनात् सुखम् । अल्पं प्रान्तं विहीनं च दुःखं लोकद्वये भवेत् ॥
अर्थ :- मूर्ख अज्ञानियों को अन्याय-अत्याचार, अनाचार या दुराचारादि से उपार्जित धन राशि किञ्चितमात्र सुख उपजाती है यह भी शान्ति और यश विहीन होती है । परन्तु इससे प्रभूत पापार्जन होता है, फलतः ऐहिक और
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