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नीति वाक्यामृतम्
"पारलौकिक महाभयंकर दुःख भोगने पड़ते हैं । फिर भी मानव यही करता यह परम आश्चर्य की बात है । सत्पुरुषों को अन्याय का त्याग कर न्याय से धनादि कमाने में प्रवृत्ति करना चाहिए । कहा है
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सुधीरर्थार्जने यत्नं कुर्यात् न्यायपरायणः न्याय एवानपायोऽयमुपायः सम्पदां मतः ॥ 10 ॥
नी. श्लो.
अर्थ :- बुद्धिमान पुरुष न्याय में तत्पर रहता है, न्यायपूर्वक ही धनार्जन में प्रवृत्ति करे क्योंकि न्याय सर्व सम्पदाओं का निर्बाध उपाय माना गया है। कहते हैं जो कार्य लाभ कम करे और अहित अधिक करे उसे सत्पुरुष कभी नहीं
करें -
धर्म बाधाकरं यच्च, यच्च स्यादयस्करः 1 भूरिलाभमपि ग्राह्यं पण्यं पुण्यार्थिभिर्न तत् ॥ 12 ॥
अर्थ :- जो धर्म में बाधा करने वाला हो, अथवा अकीर्तिकारक हो ऐसा व्यापार सौदा अधिक लाभकारी होने पर भी पुण्यभिलाषियों को नहीं लेना चाहिए । अर्थात् धर्म विरुद्ध निषिद्ध व्यापार कभी नहीं करना चाहिए । अन्याय सर्व पापों की खान है इसे दूर ही से परित्याग कर देना चाहिए ।
"पूर्व कृत धर्माधर्म का अकाद्य युक्तियों से समर्थन "
सुखदुःखादिभिः प्राणिनामुत्कर्षापकर्षो धर्माधर्मयोलिंगम् 149 ॥
अन्वयार्थ :- (सुख दुःखादिभि:) सुख व दुखों के द्वारा (प्राणिनाम्) प्राणियों के (उत्कर्षापकर्षी) उत्थान और पतन क्रमशः (धर्माधर्मयोः) धर्म-पुण्य, अधर्म पाप के (लिङ्गम् ) चिन्ह है । संसारी प्राणियों के सुख से उत्थान और दुःख से पतन देखा जाता है, इसका हेतू पूर्वकृत धर्म और अधर्म अर्थात् पुण्य और पाप हैं ।
विशेषार्थ :- संसारी प्राणियों की धन, सम्पत्ति, निरोगता, विद्वत्ता आदि से उन्नति और दारिद्र, मूर्खता, अविवेक आदि से अवनति देखी जाती है। सुख सामग्री पूर्व कृत धर्म-पुण्य और दुःख सामग्री पूर्वार्जित पाप-अधर्म का द्योतन करती है । ये ही पुण्य-पाप के चिन्ह हैं । संसार में नौ प्रकार का पुण्य माना जाता है । यथा -
अन्न पानं च वस्त्रं च स्वालयः शयनासनम् । शुश्रूषा वन्दनं तुष्टिः पुण्यं नवविधं स्मृतम् ॥21॥
नी. श्लो. सा. सं.
अर्थ :- 1. अन्न, 2. पान 3. वस्त्र 4. उत्तम भवन- आवास, 5. शयन शैय्या 6. उत्तम आसन 7. सेवा - सेवकजन 8. वन्दन - स्तुति करने वाले, नतशिर होने वाले और 9 तुष्टि सन्तोष यह नौ प्रकार का पुण्य माना गया है। उपर्युक्त वस्तुओं का समागम होने पर वह व्यक्ति पुण्यात्मा माना जाता है ।
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संसार में सर्वत्र विषमता देखी जाती है कोई राजा है, कोई रंक, किसी के पास खाने वाले हैं पर भोजन का ठिकाना नहीं, किसी के प्रभूत सामग्री पड़ी है परन्तु भोगने वाला नहीं निःसन्तान है, कोई अहर्निश कमाता है किन्तु लाभ कुछ नहीं होता और कोई चुपचाप बैठा है तो भी लक्ष्मी दौड़ी आती है । ऐसा क्यों ? इसका एक मात्र उत्तर पूर्व कृत धर्म-अधर्म या पुण्य पाप है ।
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