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नीति वाक्यामृतम् । एक शिविका में आरूढ है और दूसरे उसे उठाने वाले हैं यह भेद पुण्य और पाप के द्योतक चिन्ह हैं । दक्ष HERE FAIL ने भी लिखा है -
धर्माधर्मों कृतं पूर्व प्राणिनां ज्ञायते स्फुटम् ।
विवृद्धया सुख दुःखस्य चिलसर पर सयोः ।। अर्थ :- मानवों के सुख की वृद्धि उनके पूर्वजन्म में किये पुण्य कर्म-धर्म का, और दुःख की वृद्धि पूर्व जन्म के अर्जित पाप का फल समझना चाहिए । अतएव वर्तमान सुख-दुःख पूर्वार्जित पुण्य-पाप के चिह हैं । श्री समन्तभद्राचार्य भी कहते हैं
कामादि प्रभवश्चित्रः कर्म बन्धानुरूपतः । तच्च कर्म स्वहे तुभ्यो जीवास्ते शुद्धयशुद्धितः ।।99॥
देवा. स्तो. अर्थ :- संसारी प्राणियों का अनेक प्रकार की सुख-दुख रूप विचित्र सृष्टि देखी जाती है यथा-सेव्य, सेवक, मालिक-नौकर, सुबुद्ध-मूर्ख,सुन्दर-असुन्दर, धनी-गरीब, धर्मी-पापी, प्रिय-अप्रिय, आदि यह विषमता शुभाशुभ कर्मबंधन का परिणाम है । ये कर्म भी अपने हेतुओं से परिणमित हो जीव को शुद्ध-उच्चकुलीन, अशुद्ध नीचादि कुलों में उत्पन्न कराते हैं । जैसे कारण होते हैं वैसे ही कार्य होते हैं ।
शालि बीज से धान्य, चना से चना, गेहूँ से गेहूँ उपजते हैं, उसी प्रकार प्राणियों के पुण्य और पाप रूपी बीजों से तदनुरूप सुख-दुःख रूपी धान्य उपजते हैं, अर्थात् सुख दुख प्राप्त होते हैं । इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं करना चाहिए क्योंकि यह युक्ति और प्रमाण से सिद्ध है । कहीं भी किसी प्रकार की बाधा नहीं आती । यह स्पष्ट होता है कि पूर्वकृत कर्म जीव को सुख दुख प्रदान करते हैं यह निश्चय हो गया । अतः सुखेच्छुओं को पापकर्मों का त्याग कर सुकृत सेवन करना चाहिए । कहा है किसी कवि ने -
सुख-दुख दाता कोई न जगत में ।
पुण्य पाप का खेला रे ॥ पुण्य पाप जीव को सुखी और दुःखी बनाते हैं यह निःसन्देह सिद्ध है । जीव स्वयं आप अपने सुख-दुख का निर्माता है। धर्माधिष्ठ-भाग्यशाली का माहात्म्य
___किमपि हि तद्वस्तु नास्ति यत्र नैश्वर्यमदृष्टाधिष्ठातुः (15०॥
अन्वयार्थ :- (हि) निश्चय से (किमपि) कुछ भी (तद्वस्तु) वैसी वस्तु (नास्ति) नहीं है (अदृष्टाधिष्ठातुः) पुण्याधिकारी (यत्र) जिस (ऐश्वर्यम्) वैभव को (न) नहीं (लभते) प्राप्त करता हो ।
निश्चय से संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसे भाग्यशाली-पुण्यात्मा प्राप्त नहीं कर सकता हो । विशेषार्थ :- पुण्यात्मा भव्यजीव को धर्म के प्रभाव से सभी अभिलषित पदार्थ मिल जाते हैं । संसारी जीवों_ ।
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