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नीति वाक्यामृतम्,
at मुख्यतः गृह, वस्त्र और भोजन अभीप्सित होते हैं । धर्मात्मा इनसे वंचित नहीं रह सकते । भृगु नामक विद्वान ने लिखा है
अरक्षितं सुरक्षितं
तिष्ठति
दैवहतं
जीवत्यनाथोऽपि कृतप्रयत्नोऽपि
कृत्स्ना च
यस्यास्ति
वने
विसर्जितः
गृहे न जीवति
दैवरक्षितम्
विनश्यति
सन्निधि
भूर्भवति पूर्व सुकृतं विपुलं
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अर्थ :- जो अनाथ है, जिसकी रक्षा करने वाला कोई नहीं है उसकी रक्षा भाग्य दैव करता है । अर्थात् पूर्व जन्म कृत पुण्य रक्षक होता है । परन्तु जो पुण्यहीन है आयु कर्म जिसका शेष नहीं है वह सुरक्षित रहने पर भी मरण को वरण करते ही हैं। अरक्षित प्रद्युम्न कुमार, जीवंधर आदि वन प्रदेश में एकाकी छोड़ दिये गये तो भी आयु कर्म प्रबल होने से और अनुकूल दैव रहने से सुरक्षित रहे, मरण ही भीत हो भाग गया । भाग्य प्रतिकूल होने पर हजारों उपायों द्वारा भी जीवित नहीं रहता । शास्त्रकारों ने लिखा है
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भीमं वनं भवति तस्व पुरं सर्वोजनः सुजनतामुपयाति
प्रधानम्
धर्म सकल इष्ट पदार्थों का प्रदाता है । कहा भी है
तस्य
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रत्नपूर्णा नरस्य
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1
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अर्थ :- जिस मनुष्य के पूर्वजन्म में किये हुए प्रचुर पुण्योदय चल रहा है उसके लिए भयंकर वन भी सुसज्जित नगर हो जाता है । सभी मित्र बनकर सज्जनता का व्यवहार करते हैं । सर्वत्र उसे भूप्रदेश निधियों और रत्नों से परिपूर्ण मिलते हैं। संसार में दुर्लभ वस्तुओं का वर्णन करते हुए विभिन्न पद्यों में निम्न प्रकार कहा है
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मानुष्यं वरवंश जन्म विभवो दीर्घायुरारोग्यता । सन्मित्रं सुसुतं सतीप्रियतमा भक्तिश्च तीर्थङ्करे ।। विद्वत्तं सुजनत्वमिन्द्रियजयः सत्पात्रदाने रतिः एते पुण्य बिना त्रयोदशगुणा: संसारिणां दुर्लभाः ॥12 ॥
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अर्थ :- संसार में 13 बातों का मिलना अति दुर्लभ है 1. मनुष्य पर्याय 2. उच्चवंश, 3. ऐश्वर्य 4. दीर्घायु 5. निरोगी शरीर 6. सन्मित्र 7. सुयोग्य पुत्र 8 पतिव्रता पत्नी 9 तीर्थङ्करों में भक्ति 10. विद्वत्ता 11. सज्जनता 12. जितेन्द्रियता और 13. सत्पात्रदानभाव । ये सातिशय-पुण्यानुबन्धी पुण्य अर्जन करने वाले को ही प्राप्त होती हैं । पुण्यहीन को कदापि नहीं मिल सकती।
धर्मोऽयं धनवल्लभेषु धनदः कामार्थिनां कामदः I सौभाग्यार्थिषु तत्प्रदः किमपरः पुत्रार्थिनां पुत्रदः ||