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नीति वाक्यामृतम्
राज्यार्थिष्वपि राज्ययः किमध्या नाचा विकार णाम् । तत्किं यन्न करोति किं च कुरुते स्वर्गापवर्गावपि ॥३॥
संग्रहीत. अर्थ :- यह धर्म धनार्थियों को धन, इच्छित वस्तु जो चाहता है उसे वही देता है । सौभाग्य के अभिलाषियों को सौभाग्य, पुत्रेच्छुओं को पुत्र, राज्य चाहने वालों को राज्य, अधिक क्या कहें जो जो प्राणी चाहता है वह वह सब देता है, स्वर्ग और मोक्ष भी देता है फिर अन्य क्या ? जिन धर्म का प्रभाव अचिन्त्य है
जैनो धर्मः प्रकट विभवः संगतिः साधुलोके । विद्वद गोष्ठी वचन पट ता कौशलं सक्रि यास ।। साध्वी लक्ष्मी चरणकमलोपासना सद् गुरुणाम् ।
शुद्धं शीलं मति विमलता प्राप्यते भाग्यवद्भिः ।। अर्थ :- जैन धर्म धनादि ऐश्वर्य, सत्पुरुषों की सङ्गति, विद्वद्गोष्ठी, वक्तृत्वकला, प्रशस्त कार्य पटुता, रति समान सुन्दर नारी, गुरु चरणों की उपासना, शुद्धशील और निर्मलबुद्धि ये सर्व सामग्री भाग्यशाली पुरुषों को प्राप्त होती हैं। श्री भगवजिनसेनाचार्य ने भी कहा है
धर्मप्रपाति दुखेभ्यो धर्मः शर्म तनोत्ययं । धर्मो नै श्रेयसं सौख्यं दत्ते कर्म क्षयोद्भवम् ।।1॥ धर्मादेव सुरेन्द्र त्वं नरेन्द्रत्वं गणेन्द्रता । धर्मात्तीर्थकरत्वं च परमानन्त्यमेव च ।।2।। धर्मो बन्धुश्च मित्रं च धर्मोऽयं गुरुरंगिना । तस्माद्धर्मे मति धत्स्व स्वर्मोक्ष सुखदायिनि ।।३॥ धर्मात्सुखमधर्माच्या दुःखमित्य विगानतः । धर्मैक परतां धत्ते बुद्धोऽनर्थ जिहासया।।4।।
आदिपुराण पर्व 10 । अर्थ :- यह धर्म आत्मा को समस्त दुःखों से छुड़ाकर ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाले मोक्ष सुख को उत्पन्न करता है । इसके प्रभाव से प्राणी देवेन्द्र, चक्रवर्ती, गणधर, तीर्थड्कर के ऐश्वर्य को प्राप्तकर पुन: अमृतपद-मोक्षपद को प्राप्त करता है । धर्म ही वस्तुत: सच्चा बन्धु है, मित्र और गुरु है । अतएव प्रत्येक प्राणी को स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करने वाले शुभ समीचीन धर्मानुष्ठानों में अपनी बुद्धि को प्रेरित करना चाहिए ।। ॥
धर्म से सुख और अधर्म से दुःख प्राप्त होता है । इसलिए भव्य, विद्वान पुरुष दुःखों से निवृत्ति हेतू धर्म में प्रवृत्ति करते हैं । धर्म क्या है ? इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं -
धर्मः प्राणिदया सत्यं शान्तिः शौचं वितृप्तता । ज्ञान वैराग्य सम्पत्तिरधर्मस्तद्विपर्ययः ।।1।।
आदि पु. प. 10 ।।
पर साथीहरूस के ऐश्वर्य को प्रातकार पुनः
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