________________
नीति वाक्यामृतम्
अर्थ :- जीव दया, सत्य, क्षमा, शौच, सन्तोष, सम्यग्ज्ञान और वैराग्य ये धर्म हैं इनके विपरीत - हिंसा, असत्य, कोप (क्रोध), लोभ, मूर्छा (परिग्रह) मिथ्याबुद्धि, मिथ्याज्ञान, मिथ्यातप ये अधर्म हैं In ||
जिस प्रकार वर्षाकाल आने पर कुत्ते का विष (पागलकुत्ते का) दुःख देता है, उसी प्रकार पाप भी समय आने पर जीव को नरकादि दुर्गतियों में धकेल कर पीड़ा देता है । भयानक यातनाएँ देता है ।
धर्म से अथाह सागर स्थल, अग्नि शीतल, स्थल जल रूप होकर सुखद हो जाते हैं । विष भी अमृत बन जाता है । आपत्तिकाल में एक मात्र धर्म ही जीव की रक्षा करता है । दरिद्रों को अपार धन देता है । इसलिए तीर्थंकर प्रणीत धर्म सेवन करना चाहिए ।
जिस प्रकार अपथ्य सेवन से रोग वृद्धिंगत होकर भयकर पीड़ा देता है, जीवन असाध्य हो जाता है उसी प्रकार अधर्म भी शारीरिक, मानसिक और भौतिकादि अनेक यातनाओं को देता है । इसलिए अधर्म तज धर्म में बुद्धि लगाना चाहिए ।
जिनभक्ति, जिन वाणी स्तुति, जिन गुरु सेवा, जिन पूजा ये प्रथम धर्म या पुण्य हैं । लोभ कषाय त्याग सत्पात्र दान देना द्वितीय धर्म है । अहिंसादि पञ्चाणुव्रतों का धारण करना, इच्छा निरोध रूप तप करना भी धर्म है । धर्म ही सुख शान्ति और अमरत्व प्रदान करता है । पूज्यपाद स्वामी ने कहा है -
धर्मः सर्व सुखाकरो हितकरो, धर्म बुद्धिधाश्चिन्वते । धर्मेणैव समाप्यते शिव सुखं, धर्माय तस्मै नमः धर्मान्नास्त्यपरःसुहृद् भवभूतां धर्मस्य मूलं दया
धर्मचित्तमहं दधे प्रतिदिनं हे धर्म ! मां पालय ॥ वी.भ. धर्म सुख का सागर है, हित करने वाला है, बुद्धिमानों को इस धर्म का निरन्तर सञ्चय करना चाहिए । धर्म से ही मोक्ष सुख प्राप्त होता है अत: उस धर्म को बारम्बार नमन है । धर्म के सिवाय अन्य कोई श्रेष्ठ मित्र नहीं है । संसारी प्राणियों का कल्याण करना धर्म ही है । धर्म का मल दया है । आचार्य कहते हैं ऐसे धर्म को मैं सतत् चित्त में धारण करता हूँ हे मंगलमय धर्म ! तुम मेरी रक्षा करो, मेरा पालन करो । पापों से पराङ्मुख हो उपर्युक्त लक्षण रूप धर्म में मति प्रवृत्त करना चाहिए ।
"इति धर्म समुद्देश समाप्त" श्री प. पूज्य विश्ववंद्य, चारित्र चक्रवर्ती मुनिकुञ्जर सम्राट महान्तपस्वी, वीतरागी, दिगम्बराचार्य श्री आदिसागर जी अंकलीकर के पदाधीश आचार्य शिरोमणि श्री महावीर कीर्ति जी महाराज संघस्था, श्री प. प. कलिक श्री विमल सागर जी की शिष्या, ज्ञानचिन्तामणि, सिद्धान्त विशारदा प्रथम गणिनी आर्यिका विजयमती जी द्वारा विजयोदय हिन्दी टीका का प्रथम परिच्छेद प. पूज्य सिद्धान्त चक्रवर्ती अंकलीकर के तृतीय पट्टाधीश श्री आचार्य सन्मति सा जी महाराज के चरण सानिध्य में सम्पूर्ण हुआ ।।
57