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अर्थ-धन का लक्षण करते हैं
नीति वाक्यामृतम्
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अर्थसमुद्देशः
यतः सर्व प्रयोजन सिद्धिः सोऽर्थः ।।1।।
अन्वयार्थ :- ( यतः ) जिससे (सर्व) समस्त उभयलोक सम्बन्धी ( प्रयोजन) कार्यों की (सिद्धिः ) निष्पत्ति हो (स: ) वह (अर्थ: ) अर्थ या धन है ।
इस लोक और परलोक की सिद्धि का साधक अर्थ या धन कहा जाता है ।
विशेषार्थ :- जीवन के दो पहलू हैं - 1. भोग और 2. योग । भोग इस लोक सम्बन्धी क्रियाएँ हैं और योग पारलौकिक जीवन की साधक क्रिया । इन दोनों की सिद्धि जिसके द्वारा हो वह यथार्थ धन है- अर्थ है ।
न्याय से उपार्जित, उदार मानव धन का दान-पूजादि द्वारा सफल प्रयोग करता है, यही वास्तविक सम्पत्ति है। कृपण अपने धन को भूमि में छुपाकर रखता है, न स्वयं भोगता है और न अन्य को भोगने देता है यह यथार्थ धन नहीं है ।
भगवान ऋषभ देव ने सर्वप्रथम धनोपार्जन जीविकोपार्जन का उपाय समझाया क्योंकि जीवन के साथ धनादि हैं। कहा है
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।। प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषुः शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः ।। असिर्मषिः कृषि विद्या वाणिज्यं शिल्पमेव वा । कर्माणीमानि षोढा स्युः प्रजा जीवन हेतवे 11
आदि पु.
कर्म भूमि के प्रारम्भ में कल्पवृक्ष नष्ट प्राय हो गये । प्रजा क्षुधा तृषा से पीड़ित हो गई। उस समय श्री वृषभ तीर्थकर भगवान ने सर्वप्रथम प्रजा को असि, मसि, कृषि, शिल्प, कला, विद्यादि जीवनोपाय का उपदेश दिया । जीवन सर्व से दुर्लभ है । इसका रक्षक ही धन हो सकता है अन्य नहीं । यथा वल्लभ देव ने भी कहा है
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