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नीति वाक्यामृतम् गृहमध्यनिखातेन धनेन धनिनो यदि ।
भवामः किं तेनैव धनेन धनिनो वयम् ।। अर्थ :- यदि गृह के मध्य में गाढे हुए धन से कृपणों को धनिक कहा जाता है तो उनके उसी धन से हम लोग (निर्धन) धनिक क्यों नहीं हो सकते ? अवश्य हो सकते हैं ।
यन्न धर्मस्य कृते प्रयुज्यते यन्न कामस्य च भूमिमध्यगम् ।
तत् कदर्य परिरक्षितं धनं चौर पार्थिव गृहेषु भुज्यते । अर्थ :- वसुन्धरा के उदर में प्रक्षिप्त धन कृपों द्वारा रक्षित किया जाता है, वह न तो धार्मिक सत्कार्यों-दान पूजादि में उपयुक्त होता है और न भोगोपभोग के ही काम आता है । अन्त में उसे तस्कर या राजा ही खा जाते हैं । मनुष्य के ऐहिक और पारलौकिक जीवन में धन बहुत महत्त्वपूर्ण साधन है । विवेकी-उदार मनुष्य इससे दान पूजादि सुकृत कर उभयलोक के सुखोपभोग प्राप्त करते हैं ।
परन्तु दरिद्री धनाभाव में प्राणरक्षा ही नहीं कर पाता फिर स्वर्गादि विभूति कहाँ ? जिस प्रकार पर्वत से नदियाँ उत्पन्न होती हैं उसी प्रकार धन से धर्म उत्पन्न होता है । धनहीन पुष्ट होने पर भी बलहीन और धनाढ्य कृशकाय होने पर भी बलिष्ट समझा जाता है । धन की महिमा अपार है -
पूज्यते यदपूज्योऽपि यदगम्योऽपि गम्यते । वन्द्यते यदवन्धोऽपि स प्रभावो धनस्य हि ।।1॥ वयोवृद्धास्तपोवृद्धा ये च सन्ति बहुश्रुताः ।
सर्वे ते धनवृद्धानां द्वारे तिष्ठन्ति किङ्कराः ।।2।। अर्थ :- धन के निमित्त से अपूण्य भी पूजा प्राप्त कर लेता है, अगम्य के भी पास पहुँच जाता है और अवन्दनीय भी वन्दनीय मान लिया जाता है । यह धन का प्रभाव है ।
जो वयोवृद्ध हैं, तपोवृद्ध हैं और श्रुतवृद्ध हैं, वे सभी धनवृद्धों के द्वार पर किङ्कर समान उपस्थित होते हैं। संसार में ऐसा कोई कार्य नहीं जो धन से सिद्ध नहीं होता हो । इसलिए बुद्धिमान-विवेकियों को यत्नपूर्वक एक धन का अर्जन करना चाहिए । संसार में धन के आश्रय से सर्वगुण आ जाते हैं -
यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः । स पण्डितः स श्रुतवान् गुणज्ञः ॥ स एव दाता स च दर्शनीयः । सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति ।।4॥
नी. श्लो. सं. अर्थ :- जिसके पास धन है वह नर कुलीन है, वही पण्डित है, वही श्रुतज्ञ एवं गुणी माना जाता है । उसे (